बर्फीले रेगिस्तान की यात्रा दास्तान
पार्ट 1-कल्पा
कल्पा, होटल एप्पल पाई के मालिक अमन ने सुबह नाश्ते पर स्वागत करते हुए कहा कि "सर अगर आप आज ही पिन वैली पहुंचना चाहते हैं तो जल्दी ही कल्पा से निकलना होगा"। सुबह के सात बजे थे और हम लोग अमन के साथ गर्म चाय की चुस्कियां ले रहे थे। कुमारसेन स्थित एस एस बी ऑफिसर्स मैस से चलने के बाद हम लोग दोपहर लगभग 2 बजे कल्पा पहुंच गए थे। न जाने कल्पा में क्या आकर्षण है, ये मुझे बार बार अपने पास खींच लाता है। किन्नर कैलाश की बर्फ से ढकी हुई चोटियां और तलहटी में बसा एक पहाड़ी कस्बा कल्पा जो अपनी खूबसूरती और सेव के बागानों के लिए देश विदेश में प्रसिद्ध है, किसी का भी मन मोह लेता है। रुकने का इंतजाम होटल एप्पल पाई में था तो निश्चिंत थे। मैंने और सोमवीर ने यह निर्धारित किया कि पहले रोघी गांव सुसाइड पॉइंट घूम कर आ जाते हैं उसके बाद ही होटल चलेंगे।
कल का रात्रि प्रवास एस एस बी की ऑफिसर्स मेस कुमारसेन में मेरे मित्र कमांडेंट साहब और डॉ वर्मा के सानिध्य में बेहद आरामदायक गुजरा था, जिसने दिल्ली से कुमारसेन तक के सड़क मार्ग की सारी थकान दूर कर दी थी। हम दोनों एकदम तरोताजा थे। कल्पा को पार करते हुए हम लोग सीधे रोघी गांव की और चल दिये। खूबसूरत रोघी एक बड़ा गांव है जो कि कल्पा से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पर अधिकतर घर पुरानी किन्नौर पहाड़ी शैली के आधार पर ही बने हैं। आजकल कई गांव वालों ने अपने घरों को परिवर्तित कर होम स्टे का रूप दे दिया है। रोघी गांव में एक काफी पुराना मंदिर है जो सैलानियों के बीच काफी प्रसिद्ध है। लकड़ी की दीवारों वाले इस मंदिर में दीवारों और दरवाजों पर खूबसूरत नक्काशियां की गई हैं। मंदिर के दर्शन करने के बाद हम लोगों ने पास ही स्थित होम स्टे में चाय पी और कल्पा की और चल दिये। रास्ते में ही सुसाइड पॉइंट आता है जो कि एक बेहद खतरनाक मोड़ पर, एक बिल्कुल सीधी खड़ी पहाड़ी पर स्थित है। यहां से नीचे झांकने पर आप खुद को सैंकड़ों फ़ीट ऊंची एक सीधी खड़ी डरावनी चट्टान पर खड़ा पाते हैं। नीचे की और देखते ही शरीर में सिहरन और झुरझुरी सी होती है, मगर यही तो इस तरह की साहसिक यात्राओं का रोमांच और मजा है।
मेरी अधिकतर दुर्गम यात्राओं की शुरुवात फेसबुक से होती है।संभावित तिथि से कुछ महीने पहले मैं एक पोस्ट डालकर सभी मित्रों को यात्रा पर चलने के लिए आमंत्रित करता हूँ। बहुत कम ही लोग इस तरह की यात्राओं के लिए अपनी दिलचस्पी जाहिर करते हैं, और जो लोग दिलचस्पी दिखाते हैं वो हमारे मतलब के या हमारे माइंडसेट के नहीं होते हैं, तो बहुधा आखिरी में सिर्फ दो लोग बचते हैं। मैं खुद और सोमवीर सिंह। मैं पेशे से चिकित्सक हूँ तथा वर्तमान में दिल्ली पुलिस में चीफ मेडिकल ऑफिसर के पद पर कार्यरत हूँ। सोमवीर जी का परिचय अपनी इसी गाथा में आपको आगे दूंगा।
काफी लंबे वक्त से हम दोनों साथ साथ दुर्गम पहाड़ों में न जाने किस तलाश में भटकते फिर रहे हैं। एक यात्रा खत्म होती है और दूसरी की योजना बनने लगती है।
सरकारी नौकरी की अपनी विवशताएं होती हैं। बड़ी मुश्किल से 10 दिन की छुट्टी मिली थी। फेसबुक पर किसी भी हमारे मतलब के दोस्त की तरफ से कोई रेस्पांस नहीं था और सोमवीर सिंह अभी भी संशय में थे। यात्रा की निर्धारित तिथि में सिर्फ सात दिन बाकी रह गए थे। हमें दशहरे के दिन प्रस्थान करना था तभी हिमाचल में भारी हिमपात की खबर आ गयी। अमूमन इन दिनों में हिमाचल में हिमपात नहीं होता है मगर जब सभी परिस्थितियां प्रतिकूल हों तो यह भी संभव है। 5000 से ज्यादा यात्री स्पीति और लेह मार्ग पर फंसे थे। प्रशाशन हेलीकॉप्टर द्वारा अपनी पूरी सामर्थ्य से बचाव अभियान में लगा था। खबरें हमारे साथ साथ परिवार के सदस्यों को हमसे ज्यादा डरा रही थी। तीन दिन पहले सोमवीर ने अपनी छुट्टी की खबर दी तो दिल को एक सुकून सा मिला। लंबा विचार विमर्श हुआ और तय किया कि स्पीति चलते हैं। यात्रा मार्ग शिमला की तरफ से होते हुए काजा और अगर संभव हुआ तो मनाली की तरफ से वापसी का तय किया।
आज यात्रा का दूसरा दिन था। हम लोग सुसाइड पॉइंट पर फोटोग्राफी करते हुए होटल एप्पल पाई की तरफ चल पड़े। शाम के पांच बजने वाले थे और अब थोड़ी थोड़ी थकान भी हो चली थी। थोड़ी देर बाद ही हम होटल पहुंच गए। कमरे के सामने ही विशालकाय किन्नर कैलाश अपनी बांहें फैलाये हमें अपने आगोश में लेने के लिए आतुर था। वाह क्या समा था! सूरज डूब रहा था और डूबते सूरज की लालिमा से किन्नर कैलाश नारंगी रंग से आभावान हो उठा था।
कल्पा में जियो के अच्छे सिग्नल आते हैं तो परिजनों तक अपनी कुशलक्षेम पहुंचाने के लिए और दोस्तों को जलाने के लिए फेसबुक लाइव शुरू कर दिया। सोमवीर पहली बार ही कल्पा आये थे तो उनकी खुशी देखते ही बन रही थी। थोड़ी देर बाद ही अमन जो कि होटल के मालिक थे आ गए। तीस बत्तीस साल के अमन मस्तमौला, थोड़ा भारी भरकम, बेहद खुशमिजाज और हरफनमौला किस्म के इंसान थे और कविताओं व शायरियों के बेहद शौकीन। रात का खाना और पीना अमन के साथ ही हुआ और हम लोगों ने ढेर सारी बातें की। सुबह जल्दी उठने की हिदायत के साथ हम लोग लगभग ग्यारह बजे सोने के लिए अपने कमरे में चले गए।
सुबह आठ बजते बजते हम लोग अमन से फिर से मिलने के वायदे के साथ होटल से निकल लिए। रिकोंग पियो में गाड़ी में हवा चैक कराकर गाड़ी की टंकी फुल करा ली। अब अगला पेट्रोल पंप काजा में ही मिलने वाला था।
आज पूरा दिन हमें नेशनल हाइवे 22 पर ही चलना था। रिकोंग पियो से काजा तक की दूरी लगभग 205 किलोमीटर है और पिन वैली की दूरी लगभग 230 किलोमीटर है।
पोवारी से निकलते ही सतलज नदी हमारे दाहिनी तरफ आ गयी थी। यह पूरी सड़क खड़े पहाड़ों के बीच से होकर गुजरती है। लगभग 15 किलोमीटर चलने के बाद सतलज को पार कर हम दूसरी तरफ आ गए। यहां से नदी बाएं हाथ चलती है। कोल्ड डेजर्ट की शुरुवात हो चुकी थी।
यह पूरा इलाका हिमालय का पठार है जहां पर पेड़ पौधे धीरे धीरे ऊंचाई के साथ खत्म होते चले जाते हैं मगर सेव और सब्जियां बहुतायत में होती हैं। किन्नौर विशेषकर नाको और ताबो का सेव विश्वप्रसिद्ध है। लगभग 35 किलोमीटर के बाद पुनः नदी पार करके हम लोग एक छोटे से कस्बे स्पीलो पहुंचे जहां पर बहुत से रेस्टॉरेंट व होम स्टे बने हैं। एक कप चाय के बाद हम लोग पुनः चल दिये। अगली मंजिल थी पूह।
यहां से पूह तक कि सड़क काफी खराब है और उस पर जगह जगह निर्माण कार्य भी चल रहा है। यह पूरा रास्ता शूटिंग स्टोन के लिए बदनाम है। हमें बताया गया था कि तेज हवा के साथ छोटे छोटे पत्थर अक्सर गाड़ियों से टकराते हैं। इन सूखे पहाड़ों में काला जादू है तभी तो ये मुझे बार बार अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। मेरे मित्र कभी यह नहीं समझ पाते कि मैं बार बार पहाड़ों पर क्यों जाता हूँ। बेचारे नासमझ तो हैं ही साथ ही जलते भी हैं। आखिर बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद।
रिकोंग पियो से लगभग 70 किलोमीटर के बाद खाब में स्पीति नदी सतलज नदी के साथ संगम बनाती है और फिर दोनों एक होकर बहती हैं। पहले खाब में नाको की तरफ लगभग चार पांच किलोमीटर तक टनल जैसी पहाड़ियों से गुजरना होता था मगर इस बार यह देखकर बेहद निराशा हुई कि सड़क के ऊपर झुकी उन खूबसूरत पहाड़ियों को काटकर सड़क का चौड़ीकरण कार्य चल रहा है।
इस पूरे रास्ते में स्पीति नदी और घाटी आपके बायीं तरफ ही चलते हैं।
यांगथांग से सड़क विभाजित हो जाती है और दाहिनी ओर की सड़क नाको की तरफ चली जाती है। हमें इसी रास्ते पर आगे बढ़ना था तो पुराने गाने सुनते, गुनगुनाते व काजू किशमिश खाते हुए हम लोग नाको की तरफ चल दिये। यहीं कहीं पास से एक रास्ता रोपा वैली की तरफ जाता है। जाने का मन तो बहुत हुआ मगर रोपा से पुनः आने का वायदा करके हम लोग निर्धारित मार्ग पर आगे चल पड़े।
नाको लगभग 3625 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और अपनी झील के लिए प्रसिद्ध है। अगर आप नाको नहीं देखना चाहते हैं तो गांव में प्रवेश से पहले ही नेशनल हाईवे बांयी और को मुड़कर मलिंग नाले की और चला जाता है।
नाको "रियो पुरग्याल" पर्वत की तलहटी में स्थित मनोहारी गांव है। रियो पुरग्याल की ऊंचाई लगभग 6816 मीटर या 22362 फ़ीट है और यह हिमाचल प्रदेश का सबसे ऊंचा पहाड़ है। इसी कारण नाको में तापमान काफी कम रहता है और यहां के सेव की क्वालिटी बेहद अच्छी है। यहां पर एक बौद्ध मठ भी स्थित है। क्योंकि मैं यहां पहले भी आ चुका था और शाम को पिन वैली जल्दी पहुंचना चाहता था तो मैंने सोमवीर से कहा कि यहां देखने के लिए कुछ विशेष नहीं है, चलो आगे चलते हैं और मुल्तानी मिट्टी के जैसे पहाड़ों पर फोटोग्राफी करते हैं। यह सुनकर सोमवीर ने गाड़ी मलिंग नाले की और बढ़ा दी।
मलिंग नाले को अगर दोपहर दो बजे से पहले ही पार कर लिया जाए तो उचित रहता है। सड़क बेहद खराब है और 2 बजे के बाद पानी का प्रवाह भी बहुत तेज हो जाता है। यह भूस्खलन संभावित एरिया है और अक्सर बड़े बड़े पत्थर सड़क पर गिरकर मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं। राम राम कहते हुए हम लोग सकुशल मलिंग नाले से निकल गए। आज पानी का प्रवाह भी बहुत कम था।
कुछ किलोमीटर चलने के बाद हम लोग मुल्तानी मिट्टी जैसी पहाड़ियों के पास पहुंच गये और गाड़ी उनके ऊपर ही उतार दी। ये पूरी पहाड़ी देखने में पीली व चिकनी मुल्तानी मिट्टी की बनी लगती हैं। इनकी बनावट इतनी खूबसूरत है कि ऐसा लगता है जैसे किसी शिल्पकार ने इनको तराश कर बनाया हो। अगर इनको ध्यानसे देखें तो इनमें विभिन्न किस्म की आकृतियां नजर आती हैं। फोटोग्राफी करने के बाद हम दोनों जल्दी ही आगे चल दिये।
नाको से लगभग 20 किलोमीटर बाद चांगो कस्बा आता है और चांगो भी अपने स्वादिष्ट व रसीले सेव के लिए प्रसिद्ध है। चांगो से 13 किलोमीटर के बाद सुमदो चैकपोस्ट है। सुमदो एक मिलिट्री एरिया है और यहां पर आवश्यक रूप से सभी गाड़ियों व उसमें बैठी कुल सवारियों की एंट्री होती है।
लगभग तीन बजने वाले थे। भूख लग रही थी और ताबो लगभग 28 किलोमीटर दूर था। गाड़ी में रखे ड्राई फ्रूट्स खाते हुए और जूस पीते हुए हम लोग बिना रुके आगे बढ़ते रहे और लगभग 4 बजे ताबो पहुंच गए। यह शहर एक प्रसिद्ध बौद्ध मठ ताबो गोम्पा के चारों तरफ बसा है। यहां से हमारी आज की मंजिल मुद विलेज, पिन वैली लगभग 65 किलोमीटर दूर थी। हम अंधेरा होने से पहले वहां पहुंचना चाहते थे इसलिए चाय पीने का मन होते हुए भी लोभ त्यागते हुए हम चलते रहे।
पार्ट 2-पिन वैली
29 सितंबर 2017 लगभग 12 बजे दिन का वक्त था, मैं अपने पिताजी जो कि लगभग 72 वर्ष के हैं और अपने छोटे भाई अभिषेक के साथ मुद विलेज, पिन वैली के एक कैफ़े में धूप में पड़ी कुर्सियों पर बैठा था। 2016 में जब मैं और पापा काजा जा रहे थे तो ताबो को पार करके बायीं तरफ, नदी के ऊपर बने एक पुल पर पिन वैली नेशनल पार्क लिखा देखकर तभी तय कर लिया था कि अगले साल पिन वैली जरूर आना है और आज पिन वैली के आखिरी गांव मुद विलेज में हम लोग तारा होम स्टे व कैफ़े में बैठे थे।
पापा पूछ रहे थे कि कुछ खाओगे या फिर सिर्फ चाय लोगे।
हम दोनों ने खाने के लिए हामी भर दी।
मैंने परांठा ऑमलेट और चाय का ऑर्डर किया था। होम स्टे की मालकिन खुद किचेन में खाना बना रही थी। बेहद स्वादिष्ट ऑमलेट बना था। गर्म चाय की चुस्कियों के साथ बेहद विनम्र महिला के साथ बातचीत में पता लगा कि यहां पर रुकने का बढ़िया इंतजाम है और ज्यादा महंगा भी नहीं है। हमारा आज का रात्रि विश्राम काजा स्थित सर्किट हाउस में था। इसलिए मन में यह तय कर की अगली बार रुकेंगे, हम वहां से चल दिये थे।
आज लगभग एक साल बाद 21 अक्टूबर 2018 को मैं और सोमवीर एक बार फिर उसी ओर बढ़े जा रहे थे और मंजिल थी तारा होम स्टे। आज रात्रि विश्राम तारा होम स्टे में ही तय था। हम लोग स्पीति नदी पर पिन वैली की और जाने वाले रास्ते पर मुड़ गए।
पांच बजने वाले थे और 30 किलोमीटर अभी चलना बाकी था।
"चलो दिन दिन में ही पहुंच जाएंगे"। मैंने सोमवीर से कहा।
"जी सर, मैं तो पहुंचते ही पहले नहाऊंगा"।
"यार दिन में दो बार नहाने की क्या जरूरत है। घुमक्कड़ लोग तो कई कई दिन में नहाते हैं"।
"सर शाम को गर्म पानी में नहाने से पूरे दिन की थकान उतर जाती है", वो बोला।
हम लोग संगनम पहुंचने वाले थे। यहां पर PWD का गेस्ट हाउस है। मगर हमें तो मुद गांव रुकना था जो अब 6-7 किलोमीटर बाकी था।
पिन वैली स्पीति घाटी की पिन नदी और उसकी सहायक नदी पराहिओ के क्षेत्र में फैली है।
मुद गांव समुद्र तट से लगभग 3850 मीटर अर्थात लगभग 12361 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। सर्दियों में यहां पर भारी हिमपात होता है और अधिकतर इसका संपर्क मुख्य मार्ग से कट जाता है। रात्रि में तापमान बहुधा जीरो से कम रहता है।
हम लोगों ने सामान उतारकर तारा होम स्टे के अपने कमरे में लगा दिया था। गाड़ी बाहर ही पार्क कर दी गयी थी। अंधेरा हो चला था और बाहर शीत पड़ना शुरू हो चुका था।
सोमवीर नहाने चला गया और मैंने रजाई में घुसकर चाय मंगा ली। दिल में अजीब सी संतुष्टि थी कि पिछले साल यह सोचकर यहां से गया था कि यहां कभी आकर रुकूँगा।
"बॉस मेरे लिए चाय नहीं मंगवाई क्या"? सोमवीर ने बाथरूम से बाहर आते हुए पूछा।
"मंगाई थी यार दोनों मैं ही पी गया" मैने कहा।
गुस्से में कुछ बड़बड़ाते हुए वो अपने लिए दोबारा चाय बोलने के लिए चला गया।
मोबाइल उठाकर देखा तो नेटवर्क गायब था। हम दोनों अब तक की खींची गई फोटोग्राफ्स देखने लगे और एक दूसरे को ट्रांसफर करने लगे।
8 बजे नीचे से खाने का बुलावा आ गया।
हम लोग नीचे पहुंचे। कमरे में तारा होम स्टे के मालिक सोनम तारा व उनके कुछ परिजन भी बैठे थे। शादी के ढेर सारे कार्ड कमरे में फैले थे जिनको वो लोग गांव के नाम के अनुसार लगा रहे थे। पूछने पर पता चला कि तीन दिन बाद सोनम तारा की बेटी का विवाह है। इनके यहां शादियां एकदम अलग और तिब्बती रीति रिवाजों के साथ होती है। पूरी रात कार्यक्रम चलता है जिसमें सभी लोग आमंत्रित होते हैं। खाने और पीने का भरपूर प्रबंध रहता है। यहां पर शादियां सेव की फसल खत्म होने के बाद ही होती हैं। मन में तो आया कि कह दूं कि हम लोग भी शादी में सम्मिलित होंगे मगर वक्त की कमी और किसी दूसरी जगह रात्रि विश्राम होने के कारण इस ख्याल को जहन से झटक दिया।
कमरे को गर्म करने के लिए भट्टी का इंतजाम था। बाहर का तापमान माइनस पांच के आसपास रहा होगा।
खाना साफ सुथरा, सादा और स्वादिष्ट था। दाल और मिक्स सब्जी के साथ पेट पूजा करके व पिन वैली के बारे में सामान्य जानकारी लेकर हम लोग अपने कमरे में लौट आये।
मुद विलेज पिन वैली का आखिरी गांव है। यहां से आगे पक्की सड़क खत्म हो जाती है और एक कच्ची व बेहद खराब सड़क लगभग 16-17 किलोमीटर आगे तक जाती है जो हमें पिन पार्वती पास के लिए शुरू होने वाली ट्रेकिंग के बेस केम्प तक पहुंचाती है।
सड़क मार्ग बेहद दुर्गम है और एक अच्छे कुशल ड्राइवर की भी दिल की धड़कने बढ़ाने में सक्षम है। हम लोग सुबह उधर ही जाने के लिए तय करके सो गए।
सुबह जल्दी आंखे खुल गयी थी और धक्के मार मारकर आराम से सो रहे सोमवीर को भी मैंने उठा दिया। हालांकि वो काफी गुस्सा हुआ पर अगर आप बड़े हो तो क्या फर्क पड़ता है। गर्म पानी उपलब्ध था। नहा धोकर मैने अपना पसंदीदा परांठा ऑमलेट और मक्खन टोस्ट का ऑर्डर कर दिया।
लगभग साढ़े नौ बजे नाश्ता करके हम लोग आज की यात्रा के लिए एकदम तैयार थे। पहले पिन वैली नेशनल पार्क घूमकर शाम को काजा रुकने का प्लान था।
मुद विलेज से निकलते ही पिन वैली राष्ट्रीय उद्यान शुरू हो जाता है। 1987 में इसे राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था। इस उद्यान की ऊंचाई 3500 मीटर से लेकर 6000 मीटर तक है। पिन घाटी राष्ट्रीय उद्यान बर्फ से लकदक ऊंचाई वाले इलाकों व ढीली व अधिक ढलानों वाली पहाड़ियों के कारण हिमालय के कई लुप्तप्रायः प्राणियों जैसे हिमालयन आईबैक्स, हिम तेंदुआ, भरल, उनी खरहा, तिब्बती भेड़िया और हिम मुर्ग सहित अन्य कई पशु व पक्षियों का प्राकर्तिक वास है।
थोड़ा आगे निकलते ही एक जलधारा मिली जो रात को बिल्कुल जम चुकी थी और अब बर्फ पिंघलना शुरू हुई थी। बर्फ की विभिन्न प्रकार की आकृतियां बेहद दिलकश व खूबसूरत थी और हमारे जैसे घुमक्कडों के लिए फोटोग्राफी की बेहतरीन जगह।
सड़क मार्ग बहुत खराब हो चला था। गाड़ी व सड़क के किनारों के बीच कई स्थान पर तो बिल्कुल भी जगह नहीं बच पा रही थी। यहां से आगे जाने और वापस आने तक अन्य किसी मनुष्य या गाड़ी के हमे दर्शन नही हुए । यह बात डराने वाली तो थी ही साथ ही बेहद रोमांचकारी भी थी ।
चारो तरफ पहाड़ की चोटियां बर्फ से ढकी हुई थी। हर मोड़ पर पहाड़ों के रंग बदल रहे थे। पिन नदी हमारे बाए हाथ की ओर बह रही थी। इसी बीच हमे पहाड़ी भेड़िया और पहाड़ी लोमड़ी के कई बार दर्शन हो चुके थे। हम लोग आगे बढ़ते जा रहे थे और जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे सड़क और भी खतरनाक और संकरी होती जा रही थी।
"सोमवीर अब गाड़ी को मोड़ लो, लगभग 15 किलोमीटर आने के बाद मैंने कहा"।
"जी सर। अब जैसे ही जगह मिलेगी गाड़ी को मोड़ लूंगा। सड़क तो वैसे भी खत्म हो ही गयी है" ।
लगभग एक किलोमीटर सड़क पर झूलते हुए चलने के बाद गाड़ी को मोडने की जगह मिली थी और हमारी जान में जान आयी थी।
अगर आप स्पीति वैली की तरफ से पिन पार्वती ट्रेक करना चाहते हैं तो उसकी शुरुआत यहीं से होती है। लगभग 10 दिन में पूरे होने वाले इस ट्रैक को काफी कठिन माना जाता है। इस ट्रैक में आप तीसरे दिन 5319 मीटर की ऊँचाई पर स्थित पिन पार्वती पास को पार करते हुए खीर गंगा होकर कुल्लू स्थित मनिकरण पहुचते हैं।
गाड़ी से उतरकर बहुत देर तक फोटोग्राफी की। थोड़ी देर हम दोनों लोगो ने ध्यान लगाया और प्रकृति व ईश्वर को धन्यवाद किया। लगभग 12 बजे के आस पास हम लोग मुद गांव की ओर चल पड़े।
3 घण्टे तक इन स्वर्णिम आभायुक्त वादियों में विचरते हुए हम लोग 3 बजे काजा पहुच गए और तय किया कि किब्बर व चीचम गाँव देखकर होटल में चैक इन करेंगे , हम लोग किब्बर की ओर चल पड़े। रास्ते में क्ये मठ पड़ता है जो अपनी संरचना व वास्तुकला के लिए विख्यात है।
"सोमवीर क्ये मोनास्ट्री कल देखेंगे आज सीधे किब्बर व चीचम गाँव घूमकर आते हैं" मैंने कहा।
सोमवीर ने गाड़ी किब्बर की तरफ बढ़ा दी।अब दूर से हमे किब्बर व चीचम गांव नज़र आने लगे थे।
किब्बर गांव समुद्र तल से लगभग 4250 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। पहले किब्बर को सड़क मार्ग से जुड़े दुनिया के सबसे ऊंचे गांव का तमगा हासिल था जो अब कॉमिक गांव के पास है। काजा से किब्बर पहुंचने में हमे लगभग 1 घण्टे का समय लगा। सन 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ करीब 77 परिवार रहते हैं और इसकी कुल जनसंख्या लगभग 366 है।
किब्बर व चीचम गांव एक बहुत गहरी तंग घाटी ( Canyon) के दो विपरीत किनारों पर स्थित हैं। पहले इन दोनों गांव के बीच आवागमन के लिए सिर्फ एक रोप वे हुआ करता था जिसमें पार करने वाला खुद अपने हाथों से खींच कर ट्राली को आगे बढ़ाता था, मगर अब इन दोनों गांव के बीच में एक पुल बन गया है और इस पुल को एशिया का सबसे ऊंचा पुल माना जाता है। इस पुल के बनने के बाद किब्बर और चीचम होते हुए लोसर जाना बहुत आसान हो गया है और लोसर जाने के लिए अब आपको वापिस काजा आने की जरूरत नहीं पड़ती।
चीचम गांव Canyon के दूसरी तरफ स्थित एक बेहद खूबसूरत गांव है और लगभग किब्बर जितनी ही ऊंचाई पर स्थित है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई 4124 मीटर है। लगभग तीस घरों व 100 लोगों की जनसंख्या वाला चीचम किब्बर की तुलना में काफी छोटा है।
किब्बर गांव से ही मशहूर परांग ला ट्रेक की शुरुवात होती है, जो एक कठिन ट्रेक में शुमार है। परांग ला दर्रा समुद्रतल से 18800 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है और साल में सिर्फ तीन चार महीने के लिए ही खुला होता है। परांग ला ट्रेक स्पीति को लद्दाख स्थित शो मोरीरि लेक से जोड़ता है। इस ट्रैक में लगभग छह दिन लगते हैं।
यहां से थोड़ा आगे बढ़ने पर अभ्यारण्य शुरू हो जाता है जो कि विभिन्न जंगली जीव जंतुओं विशेषकर हिम तेंदुओं के कारण प्रसिद्ध है।
किब्बर घूमने के बाद सोमवीर ने गाड़ी सड़क से उतारकर पेरिलुंगबी कैनियन की तरफ मोड़ दी और उसके बिल्कुल किनारे पर जाकर रोक दी। चारों तरफ नीरवता फैली थी और ढलते हुए दिन की लालिमा से पहाड़ भी सिंदूरी हो चले थे। कैनियन के ऊपर हम सिर्फ दो लोग थे। हवा इतनी तेज थी कि मानों हमें उड़ा ले जाने के लिए आतुर हो। कैनियन की सतह पर डरते डरते झांककर देखा तो दोनों सिहर उठे। लगभग 1000 फ़ीट गहरी इस तंग घाटी में नीचे बहुत गहरी नदी बह रही थी। पानी इतनी गहराई में बह रहा था कि उसकी आवाज भी मुश्किल से ऊपर आ रही थी। नदी का नाम ठीक से याद नहीं आ रहा है। शायद "सांबा लांबा नाला" जैसा कुछ था। एकदम सीधी खड़ी चट्टानें और चट्टानों के अंदर दिखाई देती ढेर सारी गुफाएं डर पैदा कर रही थी। फोटोग्राफी के शौकीन सोमवीर ने यहां पर अलग अलग कोणों से फोटोग्राफी का लुत्फ उठाया।
शाम हो चली थी पांच बजने को थे। हवा बेहद तेज और सर्द थी, जब मैंने सोमवीर से काजा वापिस चलने को कहा। थोड़ी देर बाद हम काजा की और जा रहे थे जहां होटल डेजोर में आज हमें रुकना था।
पार्ट 3-माइनस 18 डिग्री सेंटीग्रेड की वो रात
पूरे चार घंटे से मैं बिस्तर में पड़ा करवटें बदल रहा था लेकिन नींद थी कि आंखों से कोसों दूर थी। दिमाग में न जाने कैसे कैसे ख्याल आ रहे थे। मैं ड्रिंकर तो नहीं हूं पर अक्सर पहाड़ों पर थोड़ी सी पी लेता हूँ। रात भी जॉनी वाकर प्लेटिनम की बोटल् लुभा तो खूब रही थी पर कुछ तो सोमवीर का डर और कुछ इतनी ऊंचाई पर रुके होने के कारण, आज रात सिर्फ एक ही पैग लिया था। शायद यही कारण था वरना सोने में इतनी दिक्कत तो कभी नहीं आती। कल रात कॉमिक का तापमान माइनस 18 डिग्री सेंटीग्रेड रिकॉर्ड किया गया था। उठकर टाइम देखना चाहा तो मोबाइल इतना ठंडा था कि छूने से ही कंपकंपी बंध गयी। एक बजा था, मतलब अगर नींद नहीं आयी तो कम से कम 5 घंटे ऐसे ही करवटें बदलना पड़ेगा, बेहद डरावना ख्याल था खासकर जब आप इतनी ऊंचाई पर हों और अकेले जागना पड़ जाए तो। लेकिन कहते हैं भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं। हम दो ही लोग थे मैं और सोमवीर सिंह और हम दो लोग ट्रिपल ऑक्यूपेंसी वाले रूम में रुके थे। जब रूम मिला था तो बड़े खुश थे कि आज तो खुलकर सोने को मिलेगा पर किसको पता था, हर इच्छा पूरी कहाँ होती है। यहां तो इतनी ठंड में बाहर भी नहीं निकल सकते जो टूटते तारे को देखकर विश ही मांग लेते की आज की रात नींद आ जाये । खैर तभी सामने वाले बिस्तर से उनींदी सी आवाज आई, लगा कमरे में ऑक्सीजन की कमी की वजह से मतिभ्रम भी हो चला है जो आवाजे आ रही है क्योंकि सोमवीर को तो अगर बाहर भी डाल आता तो वो तो वहां भी सोया हुआ होता।
पर नहीं फिर वही आवाज आई इस बार थोड़ा जोर से,
"बॉस नींद नहीं आ रही क्या"।
वाकई दिल को इतना सुकून शायद कभी नहीं मिला होगा जितना सोमवीर की आवाज को सुनकर मिला।
मैंने कहा कि "मुझे तो नहीं आ रही भाई पर तू क्या कर रहा है, सोया नहीं" ?
"बॉस मुंह ढकता हूँ तो कम ऑक्सीजन की वजह से सांस ठीक से नहीं आ रही, नाक भी बंद है और बाहर मुंह निकालता हूँ तो लगता है जम जाऊंगा इतनी सर्दी में"।
खुशी के मारे मैं बिस्तर से कूदने ही वाला था पर याद आ गया कि बाहर हाड़ कंपकंपाने वाली ठंड है।
दिल को अजीब सा सुकून मिला था कि चलो मैं अकेला ही नहीं जो जाग रहा हूँ, इसको भी नींद नहीं आ रही लेकिन अपनी भावनाओं को दबाकर मैने सोमवीर से सहानुभूति दिखाई की यार पिछले चार घंटे से करवटें बदल रहा हूँ पर नींद का नामो निशान नहीं है। गुस्सा भी किया कि या तो बिल्कुल नहीं लेने देना था या 2 पैग और लेने देता तो शायद ये हालात नहीं होते। और हकीकत में मैं 2 पैग और ले भी लिया होता अगर मेरी बेशकीमती बोटल को ये फोड़ने के लिए नहीं उठा लिया होता।
अंजान होमस्टे लांगजा 2 विलेज में जिस रात ये चलचित्र मेरे दिमाग में चल रहा था उसके किरदार मैं और सोमवीर सिंह थे जो कि दिल्ली पुलिस के बेहद दबंग पुलिस ऑफिसर माने जाते हैं और मेरी इस तरह की यात्राओं के हमेशा हमसफर रहे हैं। ये उनकी मर्जी के ऊपर है कि मुझे किस तरह संबोधित करते हैं। जब वो अच्छे मूड में होते हैं तो 'सर', थोड़े खड़ूस मूड में 'बॉस' और अगर फोन पर मेरी किसी से चुगली करनी हो तो मेरे से पांच चार साल छोटे होने के बावजूद 'बापू' कहना पसंद करते हैं और मुझे चिढ़ भी सबसे ज्यादा इसी शब्द से है। मेरे छोटे भाई की उम्र का आदमी अगर मुझे बापू कहे, घोर कलयुग है ये तो। क्या कर सकता हूँ अगर आप किसी शब्द से चिढ़ते हैं तो दुनिया उसी शब्द का सबसे ज्यादा उपयोग करती है।
आज का दिन बेहद शानदार रहा था। सुबह 8 बजे डेजोर होटल काजा से शानदार नाश्ता करने के बाद हम दोनो लोगों ने क्ये मोनेस्ट्री होते हुए किब्बर गांव, टशी गंग गांव और क्ये मोनेस्ट्री के टॉप पॉइंट से फोटोग्राफी करने का निश्चय किया था। होटल डेजोर काजा के बहुत अच्छे होटल्स में शुमार होता है और उसके मालिक करण एक बेहतरीन होस्ट। पहली रात हम लोगो ने करण के साथ खूब मस्ती और ढेर सारी बातें की थी तो करण से दोस्ती हो गयी थी जिसका नतीजा सुबह बेहतरीन नाश्ते के रूप में सामने आया था। आज मंगलवार था और सोमवीर मंगलवार को व्रत रखते हैं फिर भी उनके लिए नाश्ते में काफी कुछ था। नौ बजते बजते हम दोनों ने फॉर्च्यूनर बाहर निकाली और चल पड़े। हमेशा की तरह ड्राइविंग सीट सोमवीर ने संभाल ली थी। पहला डेस्टिनेशन था क्ये मोनेस्ट्री जिसको कल शाम भी हम चिचेम विलेज जाते हुए छोड़ गए थे। थोड़ी ही देर में हम लोग क्ये मोनेस्ट्री जाने वाली सड़क पर पहुंच गए लेकिन एक बार फिर कल शाम की तरह यह तय किया कि लौटते हुए देखेंगे हम लोग आगे बढ़ गए। बेहतरीन लैंडस्केप बिखरे पड़े थे। कुछ आगे जाकर टशी गंग गांव जाने वाली सड़क पर गाड़ी डाल दी। यहां से आगे ढेर सारे शार्ट कट्स बने हुए हैं जिन पर कम से कम फॉर्च्यूनर को दौड़ लगाने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। रास्ता क्या था कच्ची उबड़ खाबड़ सड़क थी जिसका एक छोर तो हमने पकड़ा हुआ था और दूसरा अनंत की और जा रहा था। थोड़ा आगे जाने पर हमने क्ये मोनेस्ट्री के टॉप व्यू पॉइंट के लिए गाड़ी बिना सड़क के ही मोड़ दी जिसके बारे में आज सुबह ही करण से पता चला था। गाड़ी पहाड़ों के आखिरी छोर पर खड़ी करके हम दोनों पैदल ही आगे बढ़े। बेहद तेज हवा थी कान दर्द करने लगे थे। थोड़ा सा आगे बढ़ते ही पहाड़ खत्म हो गया और हमारे सामने मंत्र मुग्ध करने वाला नजारा था। लगभग हजार फीट गहरी घाटी के सबसे ऊंचे हिस्से पर हम खड़े थे। नीचे क्ये मोनेस्ट्री साफ दिखाई दे रही थी। सोमवीर को फोटोग्राफी का बहुत शौक है उसने तुरंत पोज बनाने शुरू कर दिए। मुझे फोटो खिंचवाने का उतना शौक तो नहीं है बस सोमवीर के फोटो खिंचवाने के बाद उससे दो चार ज्यादा फोटो मैं भी खिंचवा लेता हूँ जिससे यादें बनी रहें। ये पल वाकई यादगार था आप एक कदम बढ़ाएं और हजारों फ़ीट नीचे चिरनिद्रा में आराम फरमाएं। यहां पर ढेर सारी फोटोग्राफी के बाद हम लोग टशी गंग गांव के लिए आगे बढ़ चले।
कुछ किलोमीटर के बाद सड़क पर ही बर्फ मिलना शुरू हो गयी थी। कुछ दिन पहले ही यहां भारी बर्फबारी हो कर हटी थी। सामने ढेर सारी बर्फ हो तो हम क्या कोई भी फोटोग्राफी का मोह छोड़ नहीं सकता। आखिर हम लोग घूमने जाते ही क्यों हैं ? अपना नहीं तो कम से कम सोमवीर का तो पक्का पता है कि जब जब उसके पास फेसबुक पर पोस्ट करने के लिए फोटोज का अकाल होने लगता है तब तब उसका फोन आता है कि "बॉस छुट्टी बची हुई हैं कहीं चलना है क्या"।
पहाड़ अब ऊंचे नीचे उभारों और कहीं समतल भूक्षेत्र में तब्दील हो चुके थे और आप गाड़ी को सड़क जैसी दिखती लीक पर चलाएं या उससे हटकर कोई फर्क महसूस नहीं हो रहा था। सामने ही याक्स का एक बड़ा झुंड दिखाई दिया करीब 50 के आसपास बच्चे और मम्मी पापा याक्स कुदरत निर्मित इन बेहतरीन चारागाहों में मजे कर रहे थे। हम लोग वापसी में इनके साथ फोटो खिंचाने का सोचकर आगे टशी गंग की तरफ बढ़ गए। 4-5 घरों का गांव टशी गैंग पता नहीं गैंग जैसा तो कुछ दिखा नहीं, गैंग तो अपने वेस्टर्न यू पी में होते हैं, पर था बहुत खूबसूरत। सड़क आगे भी जा रही थी हम थोड़ा रुककर आगे बढ़ चले पर जल्दी ही सड़क बेहद खराब हो गयी और न चाहते हुए भी हमें वापिस लौटना पड़ा। रास्ते में याक्स का रेहड़ फिर मिला तो गाड़ी रोक ली। कई बार अगर आदमी आपकीं बात न समझे तो उसे उसकी नियति पर छोड़ देना चाहिए वही सोमवीर के मामले में मैंने किया। लाख मना करने के बावजूद श्रीमान हीरो के माफिक लाल जैकेट डाल कर याक्स की तरफ बढ़े और लाल रंग की वो खूबसूरत जैकेट जो लड़कियों को उनकी ओर बेहद आकर्षित करती थी एक पापा याक को विकर्षित कर गयी और इनके सड़क से नीचे उतरते ही वो हुंकारते हुए इनकी तरफ दौड़ा। दिल्ली पुलिस के कमांडो न होते तो मुझे उस दिन पक्का अपने डॉक्टर होने का वहीं सबूत देना पड़ता। खैर झेंपा हुआ आदमी कहीं ज्यादा खतरनाक होता है ये उस दिन इन्होंने साबित भी किया। बेसबॉल का बैट निकाल कर इन्होंने अपने हाथ मेें ले लिया। इनकी इस हरकत पर निहत्ते पशु को डराने का मुकदमा अगर सरकार चलाना चाहे तो चला सकती है विटनेस मैं दूंगा। खैर बेसबॉल का बैट इनके हाथ में देखते ही पापा याक् जितने गुस्से से इनकी तरफ आया था उससे भी ज्यादा तेजी से उल्टे पैर भाग गया, फिर तो इन्होंने बच्चे याक्स से खूब दोस्ती की और फ़ोटो भी खिंचाई। मेरा तो अन्डरस्टुड है कि पैक्ट के मुताबिक इनसे कुछ ज्यादा फोटो मैने भी खिंचाकर इनको कृतार्थ किया। 2 बजने को थे और आज के प्रोग्राम के अनुसार हमें कॉमिक होते हुए लांगजा में विश्राम करना था। विनोद वर्मा भाईसाहब के सौजन्य से अभी तक की यात्रा बिना किसी कठिनाई के निर्विघ्न सम्पन्न हो रही थी। विनोद वर्मा जी से मेरी बात एक इत्तिफाक ही था जिसके बाद मेरी उनके दिल्ली स्थित ऑफिस पर एक शानदार मुलाकात हुई। प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी विनोद वर्मा जी होम स्टे ऑफ इंडिया के सह संस्थापक हैं। वो एक बेहतरीन ट्रेवल राइटर, फोटोग्राफर हैं और उन्होंने पहाड़ों के बारे में बहुत कुछ लिखा है और कई मैगजीन्स में उनके फोटोज और आर्टिकल पब्लिश होते रहते हैं। मेरे इस पूरे भ्रमण के दौरान होम स्टे में रात्रि विश्राम का इंतजाम उन्ही के द्वारा किया गया था जो निर्विघ्न चल रहा था और कई मामलों में ये ट्रिप मेरे पिछले सभी अनुभवों से अलग था। ये कम बजट टूर था जिसमें हम इन दुर्गम जगहों पर होटल्स के बजाय होम स्टे को ज्यादा तरजीह दे रहे थे।
हम लोग एक बार फिर से क्ये मोनेस्ट्री के सामने से निकल रहे थे और दुर्भाग्यवश मेरी स्पीति की पिछली छह यात्राओं की तरह इस बार फिर यही डिसाइड हुआ कि क्ये मोनेस्ट्री को फिर कभी देखेंगे, हम दोनों 3 बजे काजा पहुंच गए।
काजा में सिर्फ एक ही पेट्रोल पंप है इस वजह से टूरिस्ट सीजन में अक्सर बेहद भीड़ रहती है पर किस्मत अच्छी थी बिल्कुल खाली मिला और हम लोगों ने मौके का फायदा उठाते हुए टंकी फुल करा लिया। अब हम कम से कम अगले दो दिन के लिए निश्चिंत हो गए थे।
काजा समुद्र तल से लगभग 3800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से कॉमिक जाने के लिए दो रास्ते हैं एक रास्ता अधिक दुर्गम मगर छोटा है जो हिक्किम गांव होते हुए जाता है।
हिक्किम कॉमिक के पास ही स्थित एक अलग गांव है जिसमें विश्व का सबसे ऊंचा डाकघर स्थित है। हमको लांगजा गांव में रुकना था तो निर्णय लिया कि हिक्किम होते हुए जाएंगे व कॉमिक होकर लांगजा निकल जाएंगे।
चार बजे के आसपास हम लोग हिक्किम डाकघर की फोटोग्राफी करते हुए कॉमिक पहुंच गए।
कॉमिक सड़क मार्ग से जुड़ा विश्व का सबसे ऊंचा गांव है जिसके दावे पर लोग अक्सर संदेह करते रहते हैं। समुद्र तल से लगभग 4600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस गांव में Tangyud Sa-skya-gong-mig गोम्पा स्थित है जिसको विश्व की कुछ सबसे ऊंची मोनेस्ट्री में से माना जाता है। माना जाता है कि इसको चौदहवीं शताब्दी में बनाया गया था।
कभी ये पूरा भूक्षेत्र लहलहाता हुआ समुद्र हुआ करता था जो कालांतर में पहाड़ी रेगिस्तान/पठार में रूपांतरित हो गया। इसके प्रमाण और सामुद्रिक जीवों के जीवाश्म इस क्षेत्र में जगह जगह बिखरे पड़े हैं और अक्सर इस पर शोध चलते रहे हैं। बौद्ध मठ के लामा ने हमको भी कुछ जीवाश्म दिखाए।
पांच बजने वाले थे हम लोग कॉमिक से अपने अगले पड़ाव लांगजा 2 के लिए चल दिये। लगभग 20 मिनट बाद हम भगवान बुद्ध की प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध गांव लांगजा में खड़े थे।
किब्बर की तुलना में लांगजा गांव छोटा है, वहां महज 33-34 घर हैं।
समुद्रतल से इसकी ऊंचाई लगभग 4400 मीटर है। हिक्किम की ऊंचाई भी लगभग लांगजा या किब्बर के ही बराबर है। लांगजा में हजार साल से ज्यादा पुराना लांग (बौद्ध) मंदिर है। इसकी बहुत मान्यता है और स्पीति घाटी के सभी देवताओं का केंद्र माना जाता है।
आधुनिकता से दूर ये गांव हज़ारों साल पहले बसे होंगे। अभी भी यहां के निवासियों की अपनी संस्कृति को बचाए रखने की कोशिशें साफ दिखाई देती हैं। यहां के लोग बेहद सरल, ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ होते हैं।
गाड़ी पार्क करने के उपरांत भगवान बुद्ध की प्रतिमा के साथ ढेर सारी फोटो खिंचाई और अपने आज के होम स्टे "अंजान होम स्टे" की और बढ़ चले। बाद में पता चला कि होम स्टे के मालिक का नाम अंजान है जो कि लांगजा विलेज की स्थानीय समिति के सदस्य भी हैं। यहां लोगो के झगड़े अधिकतर इनके मुखिया व ग्राम समिति के द्वारा ही सुलझा लिए जाते हैं।
अंजान होम स्टे एक स्पीति स्टाइल में बना खूबसूरत मकान था जिसमें लगभग 3 कमरे होम स्टे की तरह इस्तेमाल किये जा रहे थे। उस दिन किस्मत से कोई बुकिंग नहीं थी तो हम लोगो ने अलग सोने के विचार से ट्रिपल बैड रूम को चयन किया। बदकिस्मती से कुछ दिन पूर्व हुए भारी हिमपात की वजह से काजा से ऊपर के अधिकतर गांवों में सभी टॉयलेट फ्रीज हो चुके थे और इनके पास एकमात्र ऑप्शन स्पीतियन ड्राई पिट्स टॉयलेट उपलब्ध थे। मजबूरी थी थोड़ी न नुकर के बाद कोई चारा न देखते हुए हां कर दी और सामान लगा दिया गया। दिन लगभग छिप चुका था। छाती को चीरने वाली ठंड शुरू हो चुकी थी उसी के साथ अब तक सबसे ऊंचाई पर बिताए जाने वाली रात की भी शुरुवात हो चुकी थी।
वैसे तो मैं 7-8 बार लेह लद्दाख गया हूँ और 5-6 बार इससे पहले भी स्पीति आ चुका था पर संभवतः 4400 मीटर की ऊंचाई पर रात बिताने का पहला अनुभव था। ऊंचाई को पार करना और ऊंचाई पर वक्त बिताना या चलना एकदम अलग है। मुझे अभी भी याद है कि 2016 में लेह ट्रिप के दौरान हम लोगो ने खारदुंगला पास पर लगभग 2 घंटे मस्ती की थी। इसके अलावा दयारा बुग्याल पर भी रात्रि विश्राम कर चुका था, बेदिनी बुग्याल भी रात्रि विश्राम किया था परंतु ये सब जगह ऑक्सीजन क्राइसिस एरिया नहीं हैं तो ज्यादा दिक्कत नहीं आती। स्पीति और लेह ऑक्सीजन डेफिसेन्ट एरिया हैं जहां आप अगर उचित अनुकूलन के बिना जाते हैं तो गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। खैर चिंता की कोई बात नहीं थी क्योंकि डाईमोक्स टेबलेट अपने पास उपलब्ध थी। सौभाग्य से अभी तक की किसी भी यात्रा में इसको खाने की नौबत नहीं आयी थी हां देने की नौबत कई बार आयी थी।
"बॉस आज आपने बिल्कुल नहीं पीने का वायदा किया था" सोमवीर बोला
"यार एक पैग तो लेने दे। तुझे तो पता है सिर्फ टूर पर ही थोड़ा बहुत लेता हूँ"
"नहीं आज नहीं"
"प्लीज सिर्फ एक"
"अच्छा ठीक है सिर्फ एक ले लो अगर दूसरा लिया तो बोतल फोड़ दूंगा"
अंधा क्या चाहे 2 आंखे
60 ml का एक पटियाला पैग बनाया और पहुंच गए अंजान भाई के भित्ति ग्रह में जहां अंगीठी से पूरा कमरा गर्म हो रखा था।
खाना सादा परंतु बेहद नफासत से बनाया व सर्व किया गया था। छोटी छोटी चीजो का ध्यान रखा जा रहा था। कई तरह के अचार, मक्खन और टेस्टी खाना। शायद उन लोगो को हमारी खुराक का अंदाजा नहीं था।
खाने में एक रोटी खाने वाले लोगो के लिए उन्होंने ढेर सारा खाना तैयार किया था।
"इतना तो हम चार दिन न खा पाएंगे हंसते हुए मैंने कहा"।
अंजान बोला "सरजी ऐसे तो यहां ज्यादा दिन जिंदा न रह पाओगे"।
खाना खाने के बाद हम लोग अपने कमरे में लौट आये और सोचकर कि आज जल्दी सोते हैं और कल जल्दी निकलेंगे आखिर कल यहां से सांगला तक की दूरी जो तय करनी थी, हम लोग जल्दी अपने बिस्तरों में घुस गए।
4 घंटे की कुलमुलाहट के बाद का घटनाक्रम आप पहले ही पढ़ चुके हैं।
सोमवीर को जगा हुआ पाकर जितना सुकून मुझे मिला शब्दों में नहीं लिख सकता। वाकई अजीब स्थिति थी। नाक बंद थी और दोनो के सिर में दर्द था। मुंह ढकें तो सांस नहीं आ रही थी और मुंह बाहर निकालें तो ठंड से जम जा रहे थे। दोनो ने बात करना शुरू कर दिया।
"सर् सुना है हिमालय की कंदराओं में ऐसे ऐसे तांत्रिक और अघोरी बाबा हैं जो तंत्र क्रियाएं करते रहते हैं"। सोमवीर बोला
"सब बकवास है तंत्र मंत्र कुछ नहीं होता" मैंने कहा।
"मैंने तो बॉस यह भी सुना है कि इन रहस्यमयी पहाड़ो में आत्माएं विचरण करती हैं"
"कम ऑक्सीजन की वजह से तेरा दिमाग खराब हो गया है भाई"।
"एक काम कर दो चार भूतनियाँ मेरे कमरे में भेज दे और तू बराबर वाले कमरे में जा वो भी खुला हुआ है" मैंने हंसते हुए उसको हल्का करने लिए कहा।
"बॉस अगला टूर दक्षिणी भारत का बनाओं पहाड़ों का तो चप्पा चप्पा छान मारा है हमने"।
"चुप अभी अगले साल एवरेस्ट बेस कैंप चलना है" मैंने कहा उसके बाद दक्षिणी भारत चलेंगे।
"मैं तो नहीं जाऊंगा। अब तो मैं पहले अगले साल गोआ जाऊंगा"।
"ठीक है जा मैं किसी और को गोद ले लूंगा जा तेरे बापू की पदवी से त्यागपत्र देता हूँ"।
"अच्छा चलो बाद में सोचेंगे उसने डरकर कहा।
नहीं अभी फाइनल कर, रात के 2 बजे अगला प्रोग्राम" कहते कहते मेरी आँखें बोझिल हो चली थी
उधर से भी कोई जवाब नहीं आया।
देखा कोई मुझे हिला रहा था। चौंककर उठा तो सोमवीर बोला
"बॉस मुुुुझसे ड्राई पिट में नहीं होगा मैंने आजतक बिना पानी के नहीं किया"।
"अबे सुबह हो गयी क्या मैंने आंखे मलते हुए पूछा"।
"जी बॉस 7 बजने वाले हैं 8 बजे निकलना है।
और मेजबान भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे अभी। बॉस मैं ऐसा करता हूँ गाड़ी में पानी की बोतलें पड़ी हैं न वही इस्तेमाल कर लेता हूँ"।
रास्ता दिखा दिया था लड़के ने।
कुुुुछ देर बाद पत्थर बनी हुई दो बोतलें लेकर भाईसाहब लौटे।
बोतलें जमी हुई थी और हमारी उम्मीदें भी।
"सर बाथरूम में गर्म पानी रख दिया है" थोड़ी देर बाद बाहर से अंजान की आवाज आई थी।
दिल को बड़ा सुकून सा मिला था यह सुनकर।
पार्ट 4-रक्चम सांगला
24 अक्टूबर सुबह 7 बजे सोमवीर ने झिंझोड़ कर बिस्तर से उठाया था। पता नहीं रात 2 बजे नींद आयी थी या 3 बजे। अभी भी सिर में दर्द हो रहा था। बड़ी कशमकश के बाद किसी तरह ड्राई पिट का इस्तेमाल किया गया। नहाने के बारे में तो सोच कर ही डर लग रहा था, सहम कर ब्रश तो कर लिया और फोटो अच्छी आएं इसके लिए चेहरे को भी क्लीन शेव कर लिया गया। रात तय हुआ था कि नाश्ता करके 8 बजे यहां से निकल लेंगे अंजान ने भी सुबह 8 से पहले नाश्ता तैयार करने को हामी भर दी थी। हम दोनों समान पैक करके 8 बजे के आसपास नीचे भूतल पर स्थित गर्म कमरे में नाश्ते के लिए पहुंच गए।
3 बच्चे, अंजान खुद, उनकी पत्नी और उनकी सासू मां उस वक्त कमरे में मौजूद थी। अंजान की सासू मां लगातार खांसी कर रही थी। पता लगा कि उनकी बहुत पुरानी समस्या है। सोमवीर को ऊपर कमरे में भेज कर मेडिकल किट से स्टेथोस्कोप मंगा कर उनको चैक किया तो एलर्जिक खांसी प्रतीत हुई जिसकी दवाईयां उनको अपने पास से दे दी गयी और भविष्य के लिए सावधानियां और दवाईयां बता दी गयी। जल्द ही नाश्ता हमारे सामने था। पहली बार देखा था तो पूछने पर पता लगा कि तिब्बतन पिज़्ज़ा है। पहली बार ऐसा कुछ खाने के लिए हमारे सामने था खाकर देखा तो थोड़ा कच्चा और स्वादहीन लगा। अंजान से कहा कि इसको थोड़ा और सिकवा दीजिए उसके बाद वो इतना कड़ा हो गया कि खाना ही मुश्किल हो गया। उसके बाद अनजान से कहकर परांठे बनवाये गए और उनको दो तीन कप चाय, ढेर सारा मक्खन और आचार के साथ खत्म करके हम लोग सामान लेकर बाहर खुले में खड़ी अपनी गाड़ी तक पहुंचे।
अनजान ने रिक्वेस्ट किया था कि उनकी सासू मां और एक लड़की को काजा छोड़ दें जिसे हमने सहर्ष ही स्वीकार भी कर लिया था क्योंकि हमें काजा होते हुए ही जाना था। सामान गाड़ी में भरकर हम सब लोग गाड़ी में बैठ गए। सोमवीर जी हमेशा की तरह ड्राइविंग सीट पर और मैं कंडक्टर सीट पर।
शैल्फ लिया गाड़ी स्टार्ट हुई पर कुछ सेकंड के बाद ही बंद हो गयी। फिर स्टार्ट किया फिर वही हुआ। लगभग आठ दस बार ऐसा ही होता रहा उसके बाद गाड़ी स्टार्ट होना भी बंद हो गयी। धीरे धीरे गाड़ी का शैल्फ भी लगना बंद हो गया।
लगभग 9 बजने वाले थे, सूरज धीरे धीरे पहाड़ों के ऊपर बिखरे बादलों से बाहर आने लगा था। तापमान अभी भी माइनस में ही प्रतीत हो रहा था। लोग इकट्ठा होने शुरू हो गए। उन्होंने ही बताया कि गाड़ी का तेल जम गया है तो या तो 2-3 घंटे इंतजार करना पड़ेगा या फिर गाड़ी में नीचे आग लगा कर उसको गर्म करना पड़ेगा। उनमें से एक ने गाड़ी के नीचे झांक कर देखा तो पता चला फॉर्च्यूनर के नीचे पूरे एरिया में फाइबर शीट लगी है इसलिए इसको नीचे से गर्म नही किया जा सकता। बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो गयी थी। तभी अंजान ने कहा कि गांव में एक ट्रैक्टर है वो उसको ले कर आता है उससे खिंचवा कर स्टार्ट करने की कोशिश करते हैं। अंजान और सोमवीर दोनो गांव में आगे चले गए और मैं वहीं खड़ा रहा।
1 घंटे के आसपास ऐसे ही निकल गया लेकिन इन दोनों का कोई पता नहीं था।लगभग 10 बजे के आसपास नीचे एक ट्रैक्टर के स्टार्ट होने की आवाज आई जो जल्दी ही करीब आ गयी। पास आने पर पता चला कि ट्रैक्टर का तेल भी जमा हुआ था तो पहले उसके नीचे स्टोव जला कर उसको पिंघलाया गया फिर वो स्टार्ट हुआ।
गाड़ी को ट्रैक्टर के पीछे बांध कर भगवान बुद्ध की प्रतिमा के ठीक पीछे ले जाया गया जहां से ढलान शुरू होता था। उसके बाद ट्रैक्टर को थोड़ा स्पीड में डाल कर कोशिश किया तो पहली ही बार में गाड़ी स्टार्ट हो गयी। भगवान को धन्यवाद देते हुए ट्रैक्टर वाले को 500 रुपये दिए और फाइनली 10.30 के आसपास हम वहां से चल पड़े।
बिना किसी वजह के 500 रुपये और 2.30 घंटे का नुकसान बड़ा ही तकलीफदेह था और दोनो का ही मूड ऑफ हो गया था। पर जब कुदरत ने आपके चारों तरफ इतनी खूबसूरत पेंटिंग्स की हुई हों तो मूड कब तक खराब रहता जल्दी ही दोनो चहकने लगे और आज के प्रोग्राम के बारे में डिस्कस करने लगे।
अब तक का पूरा प्रोग्राम विनोद वर्मा जी की सहायता से निर्विघ्न चल रहा था। आज इस यात्रा का छठा दिन था और आज का दिन पूरी तरह से अनप्लांड था क्योंकि प्रोग्राम के अनुसार आज हमें कुंजम पास होते हुए बाटल रुकना था परंतु भारी बर्फबारी के कारण कुंजम बंद था और मजबूरी वश हमें उसी रास्ते से वापसी करनी थी जिससे हम यहां पहुंचे थे। यह थोड़ा बोरिंग और बोझिल हो जाता है परंतु और कोई चारा भी नहीं था और आज की रात कहीं रुकने का इंतजाम भी नहीं था। सोचा रास्ते से सिग्नल के मिलते ही विनोद जी को इन्फॉर्म कर देंगे तो कुछ न कुछ हो ही जायेगा।
कल्पा और सांगला चितकुल में यह वक्त पश्चिमी बंगाल से आये टूरिस्टों की वजह से सबसे प्राइम वक्त होता है जिसमे हर अच्छा बुरा होटल, होमस्टे लगभग पूरा पैक होता है। खैर हम दोनों पुलिस विभाग से संबंधित हैं तो ज्यादा चिंता की बात नहीं थी कहीं न कहीं तो इंतजाम हो ही जाना था।
ऊंची जगहों पर अक्सर मैंने नोटिस किया है कि वहां पर लोकल ड्राइवर अक्सर बाहर के लोगों को पसंद नहीं करते हैं और गाड़ी को दबाने की कोशिश करते हैं तो लड़ते झगड़ते, जगह जगह सेव की पेटियों के रेट पूछते हम लोग चलते रहे। विनोद जी से भी बात हो गयी थी और उन्होंने सांगला में रुकने का इंतजाम हो जाने का आश्वासन दिया था तो हम निश्चिंत हो गए थे।
रास्ते में गाड़ी गियु की तरफ मोड़ ली जहां पर एक बौद्ध भिक्षु की ममी रखी हुई है। कहते हैं कि ममी के बाल और नाखून बढ़ रहे हैं मुझे तो उतने ही लगे जितने पिछली 2 बार छोड़कर गया था।
गियु से भी हम लोग जल्दी चल दिये रास्ते में एक मैकेनिक को लिफ्ट देते हुए लगभग 6 बजे करछम पावर स्टेशन पहुंच गए और सांगला की तरफ जाने वाली सड़क पर मुड़ गए।
आज के रुकने का इंतजाम नेगी होम स्टे में हो चुका था जो कि एक बेहद खूबसूरत होम स्टे निकला। होम स्टे क्या था यह मकान तो अंदर से एक खूबसूरत महल जैसा था और लगभग पूरी तरह से नक्काशीदार लकड़ियों से बना था। सामने ही सेव और खुबानी के बागान और उसके थोड़ा ही आगे बलखाती सांगला नदी। पदम नेगी जो कि इस होम स्टे के मालिक थे उन्होंने हमारा समान कमरे तक पहुंचाने में हमारी मदद की और खाने के बारे में पूछा। नेगी साहब ने यह भी ताकीद कर दिया कि सिर्फ सादा खाना ही उपलब्ध हो पायेगा।
दाल और गाजर गोभी की सब्जी के साथ पदम नेगी जी ने कई तरह के अचार और रोटी जमीन पर बिछे आसनों के सामने लगा कर हम लोगों को खाने के लिए बुला लिया। खाना एकदम घर जैसा व स्वादिष्ट बना था। नेगी जी कहीं न कहीं मन में यह भाव लिए बैठे थे कि वो ठीक से खाने का प्रबंध नहीं कर पाए। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं था।
सुबह नित्यकर्म से निरवृत्त होकर हम दोनों सेव के बाग में घूमने निकल पड़े। सेव का सीजन लगभग खत्म होने को था और नेगी जी के होम स्टे में सेव की सैंकड़ों पेटियां मंडी जाने के लिए पैक होकर रखी थी। एक बात तो तय थी कि वो सिर्फ शौक के लिए ही होम स्टे चला रहे थे अन्यथा सेव के इतने बड़े बाग के मालिक होने के बाद उनको इसकी जरूरत ही कहाँ थी।
आज गाड़ी से ज्यादा सफर नहीं तय करना था। आज का प्रोग्राम 20 किलोमीटर दूर स्थित चितकुल जाकर वापसी में रक्चम या सांगला ही रुकना था। आराम से नाश्ता करके हम लोग नौ बजे के आसपास नेगी जी के विलेज व्यू होम स्टे से निकल पड़े।
सांगला की खूबसूरत वादियों को निहारते हुए और फोटोग्राफी करते हुए हम लोग चितकुल की और जा रहे थे।
चितकुल किन्नौर जिले का एक बेहद खूबसूरत जनजातीय गांव है जो बासपा नदी के तट पर सांगला से लगभग 20 किमी की दूरी पर स्थित है और बास्पा घाटी का सबसे ऊँचाई पर स्थित गांव है। समुद्र तट से इसकी ऊंचाई लगभग 3450 मीटर है। यह भारत - तिब्बत सीमा से निकटता में स्थित आखिरी बसे गांव के रूप में भी जाना जाता है।
चितकुल मार्ग पर चलते हुए हम लोग रक्चम स्थित ITBP की चैक पोस्ट पर पहुंचे। उसके बराबर में ही ITBP कैम्प का बोर्ड लगा था। मेरे दिमाग में अचानक कुछ विचार आया और मैं गाड़ी से उतरकर चैक पोस्ट पर बैठे जवानों के पास पहुँचा।
"हैल्लो! मैं डॉ अमित त्यागी, चीफ मेडिकल ऑफिसर दिल्ली पुलिस" मैंने उनसे कहा।
"जयहिंद सर" जवान ने बोला
"जयहिंद"
"मुझे आज रात के लिए ऑफिसर्स मैस में एकोमोडेशन चाहिए। क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं?" मैंने अपना आई कार्ड उनके सामने रखते हुए कहा।
"सर इसके लिए आपको डिप्टी कमांडेंट साहब से बात करना होगा"।
"फिर मेरी उनसे बात कराइये प्लीज"
जवान ने सामने रखे इंटरकॉम को उठाकर कमांडेंट साहब को फोन करके मेरे बारे में बताया। उधर से सहमति के बाद फोन मुझे दे दिया।
"सर बताइए आपकीं क्या मदद कर सकता हूँ" उधर से एक गंभीर आवाज आई।
मैंने अपना परिचय देते हुए कहा " सर मुझे आज रात के लिए ऑफिसर्स मैस में एक कमरा चाहिए"।
"इसके लिए मुझे हैड क्वार्टर से अनुमति लेनी होगी" उन्होंने कहा। "आप ऐसा कीजिये पहले चितकुल घूम आईये और लौटते हुए मुझसे बात कीजियेगा, तब तक मैं हैड क्वार्टर को सूचित कर देता हूँ"। डिप्टी कमांडेंट साहब बोले।
"ठीक है सर" कहने के साथ ही मैंने फोन रख दिया।
हम लोग गाड़ी की एंट्री करने के बाद आगे चल दिये।
प्रकर्ति ने इस पूरे क्षेत्र को ही बेपनाह खूबसूरती से नवाजा है चारों और ऊंचे, सफेद वस्त्र पहने पहाड़, नीचे कर्णप्रिय संगीत सुनाती, बलखाती बास्पा नदी, देवदार के हरे भरे वन, सेव से लदे बागीचे हर चीज दर्शनीय है। बास्पा नदी के दाहिने तट पर स्थित इस ग्राम में स्थानीय देवी माथी का मंदिर बना हुआ हैं जो गांव के मूल निवासियों द्वारा माता देवी के रूप में भी जाना जाता है और हिंदू देवी गंगोत्री को समर्पित है, यह मंदिर पर्यटकों और मूल निवासियों के बीच बेहद लोकप्रिय है।
सर्दियों के दौरान, इस क्षेत्र में भारी बर्फबारी होती है और इसके कारण इस क्षेत्र में रहने वाले लोग निचले हिमाचल के क्षेत्र में जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। यहां दिन का तापमान अधिक और रात्रि तापमान बेहद कम रहता है। जिस वजह से सर्दियों में यहां पर लोग ड्राई पिट शौचालयों का उपयोग करते हैं। चितकुल गांव से ही चितकुल पास और गंगोत्री के लिए ट्रेकिंग का आरंभ होता है।
चितकुल में ITBP कैम्प भी है। परंतु यह प्रतिबंधित क्षेत्र है और सिर्फ अनुमति लेकर ही वहां से आगे जाया जा सकता है। हमारा आगे जाने का बिल्कुल मन नहीं था इसलिये चितकुल में फोटोग्राफी कर हम लोग वापिस चल पड़े। अगर मुझसे पूछा जाए तो सांगला, रक्चम और चितकुल में मुझे रक्चम सबसे ज्यादा खूबसूरत लगता है। चारों तरफ से बहती पानी की धाराएं और हरियाली मन मोह लेती है। वापिस रक्चम ITBP चैक पोस्ट पर पहुंचने के बाद हम लोगों को खबर मिली कि ऑफिसर्स मैस में आज रात के लिए बुकिंग कन्फर्म हो गयी है।
हम दोनों बेहद खुश हुए क्योंकि यह कैम्प इस मार्ग के सबसे खूबसूरत स्थान पर बास्पा नदी के बिल्कुल किनारे पर स्थित है। ITBP, SSB और CRPF के अधिकारी निवास में मुझे कई बार रुकने का मौका मिला है। यह बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से बनाये व व्यवस्थित किये गए होते हैं। यहां भी ऑफिसर्स मैस किसी तरह से भी कम नहीं था। बड़े बड़े सोफे, लकड़ी की आरामदेह कुर्सियां, किंग साइज बैड और नर्म मुलायम रजाईयां सब कुछ करीने से लगा हुआ व व्यवस्थित था।
दोपहर का लगभग एक बजा था। गर्म गर्म चाय व पकोड़े खाने के बाद मैं और सोमवीर कैम्प से सटकर बहती बास्पा नदी की तरफ चल दिये।
धूप निकली थी। हम लोग नदी के किनारे ही पत्थरों पर लेट गए। जल्दी ही हमें नींद आ गयी। चार बजे के आसपास जब ठंडक महसूस हुई तो दोनों की आंखे खुली। सामने ही एक खूबसूरत ग्लेशियर दिखाई दे रहा था। मैंने फेसबुक खोलकर लाइव ओपन कर दिया। सोमवीर कुछ नाराज हो रहा था। वो फोटोग्राफी करना चाहता था जो कि फेसबुक लाइव की वजह से नहीं हो पा रही थी। खैर थोड़ी देर बाद लाइव को बंद करके मैंने फोटोग्राफ खींचने शुरू किए। सोमवीर नदी के बिल्कुल बीच में स्थित एक बड़े पत्थर पर खड़े होकर फ़ोटो खिंचवा रहा था। उसका फोटो सेशन खत्म होने के बाद अब मेरी बारी थी। मैंने अपना मोबाइल सोमवीर को दे दिया।
"सर वहां उस पत्थर पर आप मत जाइयेगा, वहां बहुत फिसलन है" उसने कहा।
"पागल है क्या" कहते हुए मैं उसी पत्थर की और बढ़ गया।
सोमवीर के दो तीन फोटो खींचने के बाद मैं पोज बदलने के लिए मुड़ा तभी
"छपाक"
"अबे पकड़" मैं जोर से चिल्लाया।
मेरा पैर फिसला था और मैं कोट पेंट और जूतों के साथ नदी में गोते लगा रहा था।
किस्मत से पत्थर पर पकड़ बन गयी थी और उससे भी बढ़कर सोमवीर फोटो खींचना भूलकर मुझे पकड़ने को दौड़ा था।
बाद में दिल को बड़ा सुकून मिला था कि इस लम्हे की कोई फोटो या वीडियो फोन में कैद नहीं हो पाई थी वरना तो वह इस फोटो को दिखा दिखा कर पूरी जिंदगी मेरा मजाक उड़ाता।
शाम के पाँच बजे जब तापमान जीरो डिग्री के आसपास हो और आप सूट बूट के साथ बर्फ के पानी में पड़े हो तो दिल और दिमाग पर क्या बीत रही होगी आप समझ लीजिए।
बड़ी मुश्किल से कांपते हुए करीब 300 मीटर दूर स्थित कमरे तक पहुँचा और कपड़े उतारकर गर्म पानी में देर तक नहाता रहा तब जाकर शरीर कुछ सामान्य हुआ।
बाहर निकलते ही रजाई में घुस गया।
थोड़ी देर बाद डिप्टी कमांडेंट साहब मिलने के लिए आ गए। लगभग हम उम्र कमांडेंट साहब भी ट्रैकिंग के शौकीन निकले और उन्होंने चितकुल पास व गंगोत्री ट्रेक पर उनके द्वारा किये गए कई बचाव कार्यो की कहानियां सुनाई। रात का खाना हम लोगो ने साथ ही लिया था। बहुत दिन के बाद आज मेरी पसन्दीदा शाही पनीर की सब्जी मिली थी।
आज की रात हमारी इस यात्रा की पहाड़ो पर आखरी रात थी। कल हमे हर हालत में चंडीगढ़ पहुंचना था जिससे परसो दोपहर से पहले दिल्ली पहुँचा जा सके। आखिर परसो 27 अक्टूबर को करवा चौथ का त्योहार था और अर्धांगिनी की तरफ से सख्त हिदायत थी कि दोपहर से पहले घर पहुँच जाना है।
सुबह का नाश्ता जल्दी लेकर हम लोग कमांडेंट साहब का धन्यवाद करने चले गए और उनको दिल्ली आने का निमंत्रण भी दिया। आज पहाड़ो पर हमारा आखिरी दिन था। रात तक हम लोग चंडीगढ़ और कल दोपहर तक दिल्ली होंगे।
फिर वही ज़िंदगी की जद्दोजहद फिर वही भाग दौड़ और फिर वही एक दूसरे से गला काट प्रतियोगिता।
यात्रा कभी खत्म नही होती है। यह तो अनवरत जारी है। जीवन भी एक यात्रा ही है।
इस भागदौड़ भरी जिंदगी में ज़िंदगी को ढूंढने के लिए मुझे अक्सर पहाड़ों पर आना पड़ता है। यहाँ आकर ही मुझे अपने जीवन की क्षुद्रता का अहसास होता है।
यहीं पर मुझे मेरे होने का अहसास होता है।
यहीं पर आकर मुझे ईश्वर के होने का दृढ़ विश्वास होता है।
शुभकामनाओं के साथ
आपका अमित