Wednesday, October 15, 2025

जीवन तेरे रूप अनेक

 

कभी धूप के टुकड़ों जैसा,

कभी… छाँव में सो जाता है।

कभी ख़ुद से बातें करता है,

कभी भरी भीड़ में खो जाता है।

कभी, पवन संग मुस्काता है,

कभी दीवारों से टकराता है,

कभी चुपचाप बहता पानी,

कभी दरिया बन जाता है।

कभी रेशम की डोर में बंधा,

कभी टूट के बिखर जाता है।

कभी पत्तों की सरसराहट-सा,

बस सुनाई भर देता है।

कभी यादों का दीप जले कहीं,

कभी सांस भी भारी लगती है,

कभी लगता सब कुछ पा लिया,

कभी खाली हथेली लगती है।

रूप तुम्हारे हैं कितने, जीवन

कभी ज़ख्म, कभी मरहम बन जाना,

कभी जैसे अधूरा ख़्वाब कोई,

कभी पूरा अफ़साना बन जाना।


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