Wednesday, October 15, 2025

जीवन तेरे रूप अनेक

 

कभी धूप के टुकड़ों जैसा,

कभी… छाँव में सो जाता है।

कभी ख़ुद से बातें करता है,

कभी भरी भीड़ में खो जाता है।

कभी, पवन संग मुस्काता है,

कभी दीवारों से टकराता है,

कभी चुपचाप बहता पानी,

कभी दरिया बन जाता है।

कभी रेशम की डोर में बंधा,

कभी टूट के बिखर जाता है।

कभी पत्तों की सरसराहट-सा,

बस सुनाई भर देता है।

कभी यादों का दीप जले कहीं,

कभी सांस भी भारी लगती है,

कभी लगता सब कुछ पा लिया,

कभी खाली हथेली लगती है।

रूप तुम्हारे हैं कितने, जीवन

कभी ज़ख्म, कभी मरहम बन जाना,

कभी जैसे अधूरा ख़्वाब कोई,

कभी पूरा अफ़साना बन जाना।


Wednesday, October 8, 2025

खामोश मैं हूं, खामोश तुम हो



अक्सर हम किसी की ज़िंदगी में बस यूँ ही दर्ज हो जाते हैं —

बिना किसी शोर, बिना किसी औपचारिक शुरुआत के।

जैसे वक्त की किताब का कोई पन्ना,

जो किसी जल्दबाज़ी में पलट तो दिया गया,

पर कभी सचमुच पढ़ा ही नहीं गया।


कुछ रिश्ते होते हैं जो शब्दों से नहीं,

बस कुछ छोटे इत्तेफ़ाक़ों से बन जाते हैं —

एक मुस्कान, एक अधूरी बात,

या किसी शाम का साथ जो अनजाने में खास बन गया।

फिर वक्त धीरे-धीरे उन लम्हों पर धूल बिठा देता है,

और हम समझ नहीं पाते कि वो पल यादें बन गए हैं या खामोशी।


कितनी बातें थीं जो हमने कभी कही नहीं,

शायद कह भी देते तो क्या बदलता?

वो बातें अब वक्त के सफ़र में खोकर

किसी और की यादों का हिस्सा बन गई हैं।

और हम बस रह गए —

उन अनकहे लफ्ज़ों के भार के साथ,

जो अब दिल की गहराइयों में थमे रहते हैं।


कभी-कभी हम किसी की कहानी में ऐसे दर्ज होते हैं,

जैसे कोई ख्वाब —

जो आँखों से ओझल हो जाए,

पर दिल की गहराइयों में साँस लेता रहे।

वो ख्वाब जो खत्म नहीं होता, बस बदल जाता है।


हर याद का अपना एक रास्ता होता है —

कोई मंज़िल नहीं।

पर हम अक्सर उस रास्ते को ही मंज़िल समझ लेते हैं,

और चलते रहते हैं,

जब तक कि एक दिन एहसास न हो जाए

कि हम मंज़िल तक नहीं,

बस अपने ही बीते लम्हों में खो गए हैं।


कभी-कभी ज़िंदगी का यही सबसे सच्चा हिस्सा होता है —

वो जो अधूरा रह गया,

वो जो कहा नहीं गया,

और वो जो बस चुपचाप दर्ज रह गया।

The Quiet Ways We Are Remembered

 


Sometimes, we enter someone’s life in silence —

without intent, without ceremony.

Like a page in the book of time

that’s turned too soon,

never fully read, yet never quite forgotten.


Some connections aren’t written in words.

They’re born of fleeting moments —

a shared glance, a half-spoken thought,

a quiet evening that became special

without meaning to.

Then, as time drifts on,

it lays its soft dust over those moments,

and we can’t tell

whether they became memories or just silence.


There are always things we never say —

perhaps because saying them

wouldn’t have changed their truth.

Those unsaid words now live

in someone else’s recollections,

while we carry their echo

in the stillness of our own hearts.


Sometimes we appear in another’s story

like a dream —

fading from their sight

but breathing still within their heart.

A dream that ends only in vision,

not in meaning.


Every memory follows its own path,

but seldom reaches its destination.

We mistake the path for the end,

walk it with hope and tenderness,

until one day we realize

we never arrived anywhere —

we simply wandered deeper

into the corridors of our own past.


Perhaps that is life’s quietest truth —

that what remains unspoken,

unfinished, or unseen

is what truly endures:

the silence that once had meaning,

and the presence that stayed —

without needing to be remembered.

Saturday, November 23, 2024

यादें

अक्सर हम किसी की जिंदगी में बस इस तरह चुपचाप दर्ज होते हैं,
जैसे वक्त की किताब का कोई पन्ना बिना पढ़े ही पलट दिया गया हो।

जैसे कुछ यादें, बिना एहसास के समेट दी गई हों,
जो कभी इत्तेफाक से बने थे, अब बस चुपचाप खामोश हो गए हों।

हमारे बिना कहे, बिना बोले, कितनी बातें अब भी हैं,
जो वक्त के सफर में खो कर, किसी और की यादों में समा गईं।

हम कभी कभी ऐसे ही दर्ज होते हैं, जैसे एक ख्वाब,
जो आँखों से ओझल हो जाए, फिर भी दिल में जिंदा रहता है।

हर याद का एक रास्ता होता है, लेकिन मंजिल कहीं और होती है,
हम उस रास्ते को ही मंजिल समझ कर गुजरते हैं, पर जल्दी ही गुम हो जाते हैं।"

Saturday, September 23, 2023

मेहनतकश और ईमानदार लोग

"पापा, आप इस ठेले वाले के पास हॉर्न क्यों नहीं बजा रहे हो?"

"मेरी छोटी बेटी, जो अब इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष की छात्रा है, ने मेरी ओर देख कर थोड़ा परेशान होकर पूछा।"

आज सुबह उनका और उनके रिश्ते के भाई का प्रोग्राम था कि वे मेरे साथ मेरे ऑफिस चलेंगे और वहां बैडमिंटन खेलेंगे, घोड़े देखेंगे, और मौका मिला तो घोड़ों के ऊपर बैठकर फोटो भी खिचवाएंगे।

मेरा ऑफिस दिल्ली के बाहरी क्षेत्र में पड़ता है, जहां एकदम खुला और हरा भरा कैंपस है, जिसमें मोर और अनेकों प्रकार के पक्षी आदि खुले एरिया में विचरण करते रहते हैं। वहीं कैंपस में ही इंडोर बैडमिंटन कोर्ट और घुड़साल भी है जहां पर बेहतरीन घोड़े हैं।

सुबह 9.30 पर घर से अपनी SUV गाड़ी से हम तीनों लोग निकले। 
अब नजफगढ़ से बहादुरगढ़ जाने वाली सड़क पर गाड़ी चल रही थी। पिछले छह महीने से यह चार किलोमीटर का रास्ता एक सजा की तरह हो गया है।

सड़क के साइड में, गहरे सीवर का काम कछुवे की सरकारी गति से चल रहा है और एक तरफ की पूरी सड़क बंद होने के चलते पूरा ट्रैफिक एक साइड से ही चलता है।

आज सुबह भी ट्रैफिक थोड़ा ज्यादा था, बच्चे बेसब्र हो रहे थे और मेरी गाड़ी के सामने एक ठेले/रिक्शा वाला ढेर सारा सामान अपने ठेले पर लादे हुए धीरे धीरे चल रहा था।

पतला दुबला सा अधेड़ सी उम्र का वो व्यक्ति पसीने में तरबतर अपनी पूरी शक्ति के साथ ठेले को पैडल से चलाने में लगा था।

दूसरी तरफ से गाड़ियों का रेला और इधर से मेरी गाड़ी के आगे बेचारा ठेले वाला। काफी देर तक ऐसे ही चलता रहा मगर मुझे आगे निकलने का रास्ता नहीं मिला और न ही मैंने उस रिक्शा वाले को हॉर्न दिया।

दोनों बच्चे परेशान होने लगे थे और मेरी बेटी बोली, 'पापा, आप हॉर्न क्यों नहीं बजा रहे हो? वो कच्चे में कर लेगा अपनी रिक्शा को।

मैंने गंभीर होकर उसको बोला की नहीं, बेटा, इस सड़क पर पहला हक उसका है।

बेटी ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा कि वह कैसे?

मैंने कहा कि वह आदमी अपनी पूरी कोशिश कर रहा है अपनी गाड़ी को चलाने के लिए। उसे भी पता है कि उसके पीछे गाड़ी आ रही है। गाड़ी का क्या है, वह तो कहीं भी ओवरटेक कर लेगी, गड्ढों से भी निकल जाएगी, खराब रास्ते से भी आगे निकल सकती है, मगर अगर मैं उसको हॉर्न दूंगा तो वह और अतिरिक्त कोशिश कर सकता है मुझे रास्ता देने के लिए, यह भी संभावना है कि वह खराब रास्ते पर अपनी रिक्शा डाल ले, जहां से उसको निकलना और मुश्किल हो।

ये मेहनतकश और ईमानदार लोग हैं, यही वास्तविक भारत है। अपने परिवार के भरण पोषण के लिए वो अथक मेहनत करते हैं और अपना खून पसीना बहाते हैं।

कितने लोग गलत काम करते हैं, जीवन में पैसे कमाने के लिए शॉर्टकट अपनाते हैं, मगर उसने ऐसा नहीं किया। उसने मेहनत को अपने जीवन के लिए चुना। 
"इस सड़क पर गाड़ी से ज्यादा हक उनका है।"

मैं अक्सर रिक्शा वालों को, पैदल चलने वाले लोगों को, बुजुर्ग लोगों को रास्ता देने के लिए अपनी गाड़ी रोक लेता हूँ।

बेटी को आज जीवन का बड़ा सबक मिला था। वह प्यार और आदर के साथ मेरी ओर देख रही थी।

उसके पापा का यह रूप पहली बार उसको पता चला था।

शायद एक अनमोल सबक आज जीवन भर के लिए उसको मिल गया था। मेहनतकश और ईमानदार लोग किसी भी समाज में महत्वपूर्ण होते हैं। उन्हें सम्मान और सहानुभूति का हक होता है, और हमें उनके प्रति आदर दिखाना चाहिए। देश की तरक्की में उनका भी उतना ही योगदान है जितना किसी और का।"
©Dr Amit Tyagi 

Sunday, December 6, 2020

हरि_इच्छा_बिन_हिले_न_पत्ता

 #हरि_इच्छा_बिन_हिले_न_पत्ता


जीवन में कई बार कुछ ऐसा घटता है जो हमेशा के लिए आपकी सोच को बदल देता है; दिशा बदल देता है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ उस दिन हुआ था।


अगर मेरी याददाश्त ठीक है तो वह 20 या 21 मई 2001 का एक खुशनुमा दिन था। मैं, मेरे पिताजी और मेरा छोटा भाई; तीनों बद्रीनाथ धाम पर मंदिर के ठीक सामने खड़े थे। कुछ ही सप्ताह पूर्व मैंने अपनी पहली गाड़ी🚗 (मारुति 800) खरीदी थी और हम लोगों ने गाड़ी खरीदते ही पहाड़ों 🏔️🏔️ पर जाने का प्लान बनाया था।

मेरा बचपन एक ऐसे परिवार 👩‍👩‍👧‍👧में बीता जिसमें महिलाएं बेहद धार्मिक प्रवृत्ति की थीं और इसके उलट पुरुष एकदम नास्तिक। तो बचपन बेहद धार्मिक माहौल में गुज़रा मगर बड़ा होते-होते ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह उत्पन्न होने लगा। बाद में एमबीबीएस में चयन के बाद तो मृत शरीरों पर चीरफाड करते हुए मैं लगभग पूरी तरह से नास्तिक हो चुका था। तब मैं ईश्वर, भूत-प्रेत, आत्मा इन सबके अस्तित्व को नकारने लगा था। रात को शर्त लगाकर हम लोग डिसेक्शन हॉल में घुस जाते थे जहाँ पर मृत शरीर टेबल पर चिरनिद्रा में आराम फरमा रहे होते थे। उस वक्त ईश्वरीय स्वरूप को नकारना मेरे लिए आधुनिकता प्रदर्शन और आदतों में शुमार हो चुका था।

सन 2001 में बद्रीनाथ जाने वाला रास्ता, खासकर जोशीमठ से आगे बद्रीनाथ धाम तक बेहद खराब हुआ करता था। जोशीमठ से शुरू होकर बद्रीनाथ धाम तक उस वक्त एक गेट सिस्टम हुआ करता था जिसमें हर 6 घंटे के बाद एक साइड से ट्रैफिक छोड़ा जाता था जबकि दूसरी साइड से ट्रैफिक को बिल्कुल बंद कर दिया जाता था। पूरा रास्ता बहुत खराब, कीचड़ और पत्थरों से भरा था और अक्सर सड़क पर भूस्खलन हुआ करते थे। ऐसे में मारुति 800🚗 से बद्रीनाथ जाना कोई बहुत बुद्धिमानी भरा निर्णय नहीं था। मगर शुरू से ही थोड़ा डेयरिंग रहा हूँ तो बिना किसी दूसरे विचार के हम लोग निकल पड़े थे।

हम लोगों को बद्रीनाथ धाम के दर्शन करने के बाद #माणा गांव देखते हुए लौटकर गोविंदघाट में एक रात रुक कर अगले दिन #फूलों_की_घाटी 🌿🌱जाना था। इसी कारण हम लोग रात जोशीमठ में रुके और सुबह जब जोशीमठ साइड से गेट खुले तो हम लोग बद्रीनाथ धाम की तरफ चल पड़े थे। रास्ता बहुत खराब था और हम लोग जैसे-तैसे करके बद्रीनाथ धाम तक पहुंचने में सफल हो गए। इस वक्त हम तीनों बद्रीनाथ धाम के मुख्य मंदिर 🛕के सामने खड़े सामने लगी लंबी कतार को देखकर परेशान थे। इसी वजह से यह तय किया कि पहले माणा गांव हो आते हैं और उसके बाद आकर वापसी में दर्शन कर लेंगे। फिर हम मंदिर से माणा गांव की तरफ चल पड़े।

आज ही हमें दर्शनोपरांत गोविंदघाट पहुंचना था जहाँ से अगले दिन हमें #घघरिया के लिए 16 किलोमीटर की ट्रैकिंग 🚶‍♂️🚶‍♂️करनी थी। माणा से लौटते-लौटते हमें लगभग 3:00 बज गये थे। हम एक बार फिर से बद्रीनाथ धाम मंदिर के सामने खड़े होकर पहले से भी अधिक श्रद्धालुओं की कतार को मायूसी से देख रहे थे। दर्शन तो शुरू हो चुके थे मगर श्रद्धालुओं की संख्या भी बढ़ गयी थी।

थोड़ा इंतजार करने के बाद
पिताजी ने कहा- “चलो यहीं से मंदिर को प्रणाम करते हैं और गोविंदघाट चलते हैं अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।”

मैंने और मेरे छोटे भाई ने एक दूसरे की तरफ देखा और थोड़ा असमंजस की स्थिति में बोले- “इतनी दूर आने के बाद बिना दर्शन किये जाना ठीक नहीं होगा।”

पिताजी ने कहा- “ईश्वर तो कण-कण में विद्यमान है; जरूरत है उसे पहचानने की।”

फिर लगभग निर्णायक तरीके से बोले- “हम फिर आएंगे, अभी चलते हैं।”

तीनों ने वहीं से मंदिर को प्रणाम 🙏 किया और श्री बद्री विशाल जी से फिर आने का वायदा करके गाड़ी लेकर गोविंदघाट की ओर चल दिए।

मैं थोड़ा निराश था मगर चूंकि आज रात रुकने का इंतजाम गोविंदघाट में था तो जाने को आवश्यक समझते हुए चुप रहा। बद्रीनाथ धाम से लगभग आठ-दस किलोमीटर के बाद बेहद खराब सड़क का टुकड़ा शुरू हो जाता था जो कच्चे पहाड़ होने के कारण भूस्खलन के लिए कुख्यात रहा है। कच्चे पहाड़ों की भुरभुरी ढलानों पर लाखों-करोड़ों छोटे से लेकर विशालकाय पत्थर ऐसे टिके हैं कि लगता है अब गिरे और तब गिरे। हर साल न जाने कितने लोग सड़क के इस हिस्से से गुजरते हुए इन पत्थरों के कारण अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।

हम लोग धीरे-धीरे उस खराब और खतरनाक भाग से गाड़ी निकाल ही रहे थे कि गाड़ी से लगभग 50-60 मीटर आगे गड़-गड़-गड़ की आवाज़ के साथ ऊपर पहाड़ 🏔️से बड़े-बड़े पत्थर नीचे आने लगे। हम लोग एकदम सकते में आ गए। अगर थोड़ा भी आगे होते तो गाड़ी के साथ नदी और घाटी में समा गए होते।

बड़ा डरावना मंजर था। हम लोगों से कुल पचास-सौ मीटर की दूरी पर सड़क पर #य्ये_भारी_भारी पत्थर ऊपर से नीचे लुढ़क कर रास्ते को पूरी तरह से बंद कर चुके थे। गाडी से नीचे उतरे तो टाँगें काँप रही थी।
लगभग तीस मीटर की सड़क पूरी तरह  पत्थरों से ब्लॉक हो चुकी थी। आगे जाने का ज़रा सा भी रास्ता नहीं बचा था। उस वक्त मोबाइल फोन होते नहीं थे तो किसी को सूचना भी नहीं दे सकते थे। थोड़ी देर सकते की हालत में खड़े हम लोग इन बदली हुई परिस्थितियों में आगे की प्लानिंग पर विचार कर रहे थे। आगे जाने का रास्ता तो बंद हो चुका था और गाड़ी को पीछे मोड़ना भी बेहद खतरनाक था। ऊपर से पत्थरों के गाड़ी पर गिरने का डर। कोई और चारा न होने के कारण गाड़ी को इसी स्थिति में लगभग 500 मीटर बैक गियर में डालकर हटाया और किसी तरह मोड़कर हम लोग वापिस बद्रीनाथ धाम की तरफ चल पड़े। कहीं ना कहीं हम तीनों के मन में यह बात बार-बार आ रही थी कि बद्रीधाम आ कर भी दर्शन न कर पाने की वजह से ही ऐसा हुआ है।

वापिस बद्रीनाथ धाम पहुंचकर वहां पुलिस चैक पोस्ट पर इस भूस्खलन और सड़क के बंद होने के बारे में जानकारी दी जिसकी उनको पहले ही दूसरी तरफ से खबर लग चुकी थी। चैक पोस्ट पर ही हमने रात्रि विश्राम के बारे में कुछ व्यवस्था करने की गुजारिश की। उन दिनों बदरीनाथ धाम में रहने की बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं हुआ करती थी। सिर्फ कुछ धर्मशालाएं ही रहने का एकमात्र ऑप्शन थी इसलिए हमने उन्हीं में से एक धर्मशाला में रात्रि विश्राम के लिए कमरा बुक कर लिया। हमें यह बताया गया कि कल दोपहर बाद तक ही रास्ता साफ हो पायेगा। तो अब हमारे पास भरपूर वक्त था। इसको ईश्वरीय इच्छा मानते हुए पापा ने हम लोगों से अगले दिन सुबह की आरती में सम्मिलित होने के लिए बोला। फिर दिन भर के थके हुए होने के कारण हल्का-फुल्का खाकर हम लोग सो गए।

आज भी जब मैं इस यात्रा के बारे में कभी विचार करता हूँ तो यह सोचकर ही सिहर उठता हूँ कि क्या कोई ऐसा दूसरा भी होगा जो बद्रीनाथ धाम जाकर भी श्रीहरि के दर्शन किए बिना वहां से वापस आ जाए। खैर उन दिनों विचार शृंखला ऐसी ही हुआ करती थी।

अगले दिन सुबह 4:30 बजे उठ कर मैं और भाई दोनों श्री बद्रीनारायण जी के मंदिर🛕 में पहुंच गए। गर्भगृह में उस वक्त हमारे अलावा सिर्फ दो-तीन ही और लोग थे। थोड़ी ही देर में आरती शुरू होने वाली थी। बड़ा ही आध्यात्मिक, दिव्य और अलौकिक वातावरण था। मैं भी अभिभूत था और श्रद्धा और भक्ति के इस माहौल में मेरी आँखें बंद होने लगी थी। पूजा खत्म होने के बाद भी मैं आंखे बंद किये खोया हुआ था कि किसी का हाथ मुझे अपने सर पर महसूस हुआ। आँखें खोली तो सामने मुख्य पुजारी जी आरती की थाली लिए खड़े थे। मुझे लगा; धीमे से उनके मुंह से आवाज़ निकली कि भगवान से मिलने आये थे और बिना दर्शन के जा रहे थे। श्री बद्रीनारायण का आशीर्वाद तेरे ऊपर है और उन्होंने ही तुझे यहाँ दर्शन के लिए वापिस बुलाया है। 
मैं भौंचक सा खड़ा था और वो मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। मैंने जिंदगी में पहली बार किसी को साष्टांग प्रणाम किया होगा। पुजारी जी ने आशीर्वाद के साथ पूजा का प्रसाद भी दिया।

मेरे जीवन की यही वो घटना थी जिसके कारण मैं नास्तिकता से आस्तिकता की तरफ मुड़ा, जब मैंने भगवान के अस्तित्व को बचपन के बाद पुनः स्वीकार किया। ईश्वरीय शक्ति पर मेरी श्रद्धा तभी से अटूट हो गयी। उसके बाद 2001 से लेकर अभी तक कई बार बद्रीनाथ धाम जा चुका हूँ और हर बार जाकर #मेरे_आराध्य से अपनी उस भूल की क्षमा मांगता हूँ। 

अगले दिन 2:00 बजे के आसपास बद्रीनाथ धाम से वाहनों 🚕🚙को जोशीमठ की तरफ रवाना किया गया और हम लोग उस दिन गोविंदघाट पहुंचकर रात्रि विश्राम किए और अगले दिन घघरिया की तरफ अगले पड़ाव की ओर चल पड़े। 


अस्तु मैं खुद को ऐसा व्यक्ति मानता हूँ जिसे उसकी यात्राओं की वजह से ईश्वरीय शक्ति में विश्वास हुआ और तब से लेकर आज तक की अपनी हर यात्रा में मैं ईश्वरीय स्वरूप को अनुभव करता हूँ।


-डॉ. अमित त्यागी

Saturday, May 9, 2020

वो कौन थी।

वो कौन थी??
(2017 की वो रहस्यमय घटना)

रात के लगभग डेढ़ बजे द्वारका की सुनसान सड़कों पर मेरी गाड़ी सौ से ऊपर की गति से घर की तरफ दौड़ रही थी। गाड़ी खुद ही ड्राइव कर रहा था। रात की ड्राइविंग मुझे बिल्कुल पसंद नहीं  पर आज मेदांता अस्पताल गुड़गांव में भर्ती अपने एक दोस्त से मिलने गया था। आज का पूरा दिन  ही बेहद  थकान भरा था। सुबह 10 बजे से शाम 6:00 बजे तक ड्यूटी पर ढेर सारे मरीज देखकर कर 40 किलोमीटर दूर स्थित मेदांता अस्पताल जाना और वहां से वापिस आने में बेहद थकान भी हो गयी थी और नींद भी आ रही थी। गाड़ी स्पीड से सेक्टर 9 द्वारका मेट्रो स्टेशन के पास से निकल रही थी थोड़ा रास्ते का कन्फ्यूजन हुआ लगता था।  रेड लाइट से थोड़ा सा पहले ही उस बड़े से पेड़ के नीचे से निकलते हुए मुझे गाड़ी में एक अजीब सा अहसास हुआ और ऐसा लगा कि एक साया तेजी से गाड़ी की तरफ लपका और उसी के साथ एक अजीब सी मदहोश कर देने वाली खुशबू गाड़ी के अंदर भर गई। गाड़ी की पिछली सीट से डॉली मेरी धर्मपत्नी जी की तेज आवाज आई कि गाड़ी धीरे चलाओ इतना तेज क्यों चला रहे हो।  मैंने गाड़ी की रफ्तार थोड़ी कम की और रेड लाइट क्रॉस करने लगा। आंखे बोझिल होने के बावजूद न जाने किस ताकत के वशीभूत होकर मैंने अपनी पूरी ताकत के साथ गाड़ी में ब्रेक लगाए, मगर उसके बावजूद पोचनपुर गांव की तरफ से आने वाला वह ट्रक मेरी गाड़ी के अगले बम्पर को बुरी तरह से डैमेज करता हुआ निकल गया। मेरी नींद एकदम से गायब हो गई और संभावित भीषण एक्सीडेंट की सोच कर शरीर कंपकंपा गया। इतनी भी हिम्मत नहीं हुई कि उतर कर देखता कि गाड़ी को कितना नुकसान हुआ है। धीरे-धीरे गाड़ी चलाते हुए लगभग 10 मिनट बाद घर पहुंचा। दिमाग एकदम शून्यता की स्थिति में था। गाड़ी पार्क की और लिफ्ट से छठी मंजिल पर स्थित अपने घर पर पहुंचकर मैंने घंटी बजाई। दरवाजा खुला तो सामने ही धर्म पत्नी जी थोड़ा गुस्से में खड़ी थी और बोली इतनी देर आज आपने कहां लगा दी। और मैं अवाक और भौंचक्का खड़ा हुआ उनके चेहरे की तरफ देख रहा था। 
फिर गाड़ी की पिछली सीट से वो आवाज किसकी थी??
शरीर की ताकत खत्म हो चुकी थी। किसी तरह घिसटता हुआ ही बिस्तर तक पहुंचा और गिर पड़ा और सिर्फ ये सुनाई दिया कि क्या हुआ आपको, तबियत तो ठीक है न। मैं गिरते ही गहरी नींद में चला गया।
©डॉ अमित त्यागी
(2017 की मेरे साथ घटित सच्ची घटना पर आधारित)