Friday, January 29, 2016

2‬-1910 का वो काल


पारंपरिक सामारोह जैसे शादी ब्याह आदि मैं हर कुटुंब अपना बड़प्पन व् शान दिखाने के लिए अपनी हैसियत से कहीं ज्यादा खर्च कर देते थे। कुछ परिवार तो अपनी हैसियत की सीमा को पार कर इस हद तक कर्ज मैं डूब जाते थे जिससे जमींदारो के चंगुल से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते थे। जहाँ तक जातिगत सरंचना का सवाल था इस छोटे से गाँव मैं त्यागी, हरिजन, बाल्मीकि, धीवर एवं कुम्हार आदि मुख्य जातियां थी जिसमे हरिजन और बाल्मीकि लगभग 40 प्रतिशत और त्यागी 60 प्रतिशत थे। ज्यादातर आबादी का मुख्य व्यवसाय खेती और खेती से सम्बंधित कार्य थे। खेती योग्य भूमि का लगभग 90 फीसदी हिस्सा सवर्ण त्यागियों के पास था तथा मात्र 10 फीसदी हिस्सा कुछ हरिजन व् धीवर परिवारो के पास था। इस प्रकार ज्यादातर हरिजन बाल्मीकि व् धीवर जाती खेतिहर मजदूर व् साफ़ सफाई के कार्यो मैं संलग्न थी। शिक्षा की अवस्था इस समय बेहद दयनीय थी और गाँव मैं प्राथमिक स्कूल का भी अभाव था। प्राथमिक शिक्षा के लिए भी गाँव से लगभग 5 किलोमीटर दूर स्थित एक क़स्बा चरथावल मैं जाना पड़ता था। 1905 तक गाँव की लगभग शत प्रतिशत आबादी प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित थी। प्राइमरी शिक्षा से आगे की शिक्षा के लिए 25 किलोमीटर दूर स्थित जिला मुख्यालय जाना मजबूरी थी और वहां भी डीएवी स्कूल एकमात्र स्कूल था जो माध्यमिक शिक्षा तक ही उपलब्ध था। इस गाँव व् आसपास के गाँव की आबादी किसी भी प्रकार के संचार साधनो जैसे अखबार इत्यादि से परिचित नहीं थी। राजनीतिक चेतना भी नितांत सीमित व् सुनी सुनाई सच्ची झूटी घटनाओ तक ही सीमित थी। आम आदमी की जानकारी मात्र इतनी ही थी की इस देश का शाशन अंग्रेज साहब बहादुर के हाथ मैं था और राजा सात समुन्दर पार इंग्लैंड मैं बैठे हैं।इस समय तक इस राजनीतिक स्थिति या समझ को लेकर आम गाँववासी मैं न कोई बैचेनी थी और न ही कोई विरोध था। स्थानीय थाने का दरोगा व् तहसील का पटवारी ही सत्ता के वास्तविक प्रतीक और अपनी पूरी हनक के साथ स्थानीय प्रशाशन चलाते थे। जमीदारी प्रथा भी कायम थी और ज्यादातर कृषि भूमि का नियंत्रण जमीदारों के हाथ मैं था। आम कृषक सीरदार या बटाईदार की हैसियत से कृषि भूमि जोतता था और पैदावार का लगभग आधा भाग जमीदारों को जाता था जो उसके कारिंदे वसूलते थे और इस वसूली मैं प्रताड़ना व् दमन का भी काफी प्रचलन था। जिला प्रशाशन का पूरा नियंत्रण कलेक्टर का होता था जो अधिकतर अंग्रेज होता था और ICS की परीक्षा से चुनकर और इंग्लैंड मैं ट्रेनिंग लेकर आते थे।
ग्रामीण आँचल के इस संक्षिप्त तत्कालीन विवरण के बाद हम इस कथानक की शुरुवात करते हैं। इस गाँव के अनेक कुटुम्बों मैं एक कुटुंब चौधरी जौमी सिंह का था जो जाति से त्यागी और पेशे से कृषक थे। आगे चलकर ये कुटुंब चार परिवारों मैं बँट गया इनमे से एक परिवार के मुखिया चौधरी वजीर सिंह त्यागी थे जो एक बड़े कृषक और बेहद सीधे सादे इंसान थे। इनके तीन लड़के सबसे बड़े कुंदन सिंह अछपल सिंह और ताराचंद हुए। लगभग 1917 मैं इस परिवार के सबसे छोटे सुपुत्र ताराचंद गाँव के एकमात्र ऐसे लड़के थे जिन्होंने बहुत संघर्ष करके विषम परिस्थितयों मैं जिला मुख्यालय पर उपलभ्ध सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त की और इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की।
ये प्रथम विश्वयुद्ध का समय था और युद्ध अपने निर्णायक दौर मैं चल रहा था। देश के अंदर बहुत सी राजनीतिक व् सामाजिक उथल पुथल हो रही थी और गाँव भी अब इस वक्त तक इनसे अछूते नहीं थे। राष्ट्रिय राजनीतिक रंगमंच पर गांधीजी का आगमन हो चूका था तथा कांग्रेस गांधीजी के नेतृत्व मैं स्वतंत्रता प्राप्ति के अपने मिशन की और बढ़ चली थी। गाँव मैं भी आर्यसमाज, कांग्रेस तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं द्वारा राजनीतिक व् सामाजिक चेतना का प्रसार किया जाने लगा था।
ऐसे समय मैं ये नौजवान व् शिक्षित लड़का ताराचंद अपनी मंजिल ढूंढने का प्रयास कर रहा था और इसी प्रयास के शुरुवाती दौर मैं एक बड़े जमींदार परिवार से होने के बावजूद भी सेना मुख्यालय रुड़की के लेखा विभाग मैं नोकरी से अपने कैरियर की शुरुवात की।

4 comments:

  1. सरल स्वाभाविक, वाह। अद्भुत प्रवाह।

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  2. सरल स्वाभाविक, वाह। अद्भुत प्रवाह।

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  3. बहुत बढ़िया लिखा है..

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