Monday, February 15, 2016

12- 1925 का वो भारतीय पुलिस पदक

तय समयानुसार २० मार्च को इलाहबाद पुलिस मुख्यालय पर एक भव्य समारोह में पदक प्रदान किये गए। इस अवसर पर मुख्य अतिथि गवर्नर के साथ साथ पुलिस विभाग के अन्य उच्चाधिकारी, मेयर इलाहबाद तथा अनेक गणमान्य नागरिक भी उपस्थित थे। इस बार संयुक्त प्रान्त पुलिस में केवल चार ही अधिकारीयों को यह सम्मान प्राप्त हुआ था। पुलिस पदक प्राप्त करने वालो में इंस्पेक्टर ताराचंद का पहला ही नंबर था। माइक पर अपने नाम की उद्घोषणा होने के बाद इंस्पेक्टर ताराचंद बहुत ही सधे हुए क़दमों से स्टेज पर पहुंचे। प्रोटोकॉल के अनुसार कप्तान माइकल को ही पदक प्राप्त करने से पहले अधिकारी की उपलब्धियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करना था। कप्तान माइकल ने बड़े उत्साह पूर्वक बताया की संयुक्त प्रान्त के पुलिस विभाग में अब तक भारतीय पुलिस पदक का सम्मान प्राप्त करने वाले इंस्पेक्टर ताराचंद सबसे युवा अधिकारी हैं। वैसे तो पुलिस विभाग में किसी बड़े अपराध के उन्मूलन के लिए किये गए सफल अभियान के पीछे एक पूरी टीम का योगदान होता है लेकिन मैं ये दृढ़ता पूर्वक बताना चाहूंगा कि इंस्पेक्टर ताराचंद के नेतृत्व में अपराध उन्मूलन के जितने भी अभियानों में सफलता मिली है उसमें इस युवा अधिकारी के व्यक्तिगत साहस, कार्यकुशलता तथा ईमानदार प्रयासों की प्रमुख भूमिका है। अपनी पुलिस सेवा के संक्षिप्त कार्यकाल में इस युवा अधिकारी ने जो मिसाल कायम की है वो विभाग के अन्य सभी पुलिस कर्मियों के लिए अनुकरणीय है। संयुक्त प्रान्त के गवर्नर ने कप्तान माइकल की बातों को बड़े ध्यान से सुना तथा संज्ञान लिया। गवर्नर ने प्रोटोकॉल से हटकर पदक प्रदान करने के बाद युवा अधिकारी से गर्मजोशी से हाथ मिलाया तथा कंधे पर हाथ रखकर कहा "बहुत खूब मुझे तुम पर गर्व है, और आगे बढ़ो मेरी शुभकामनायें तुम्हारे साथ हैं। पूरा समारोह बहुत देर तक तालियों से गूंजता रहा। गांव घिस्सुखेड़ा में भी इंस्पेक्टर ताराचंद को यह सम्मान मिलने तथा उनकी उपलब्धियों की खबर पहले ही पहुँच चुकी थी। धीरे धीरे आसपास के गांव में भी खबर फ़ैल गयी। बहुत से लोग परिवार को बधाई देने व् अपनी ख़ुशी का इजहार करने आ रहे थे। गांव के बेटे की इस उपलब्धि पर गांव का प्रत्येक व्यक्ति फूला नहीं समा रहा था। प्रत्येक व्यक्ति आपसी भेदभाव भूलकर खुद को भी गौरवान्वित महसूस कर रहा था। 

इंस्पेक्टर ताराचंद पर भी बहुत दिनों से गांव आने का आग्रह बढ़ता जा रहा था। अपने परिवार वालो व् गांव वालों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए ताराचंद ने उनको तार द्वारा सूचित किया की कुछ आवश्यक कार्य निबटाने के बाद वो शीघ्र ही गांव आएंगे। 

गांव घिस्सुखेड़ा तथा आसपास के सभी गांव की हालत अब भी जस की तस थी। शिक्षा तथा स्वास्थ्य के विषय में अब भी कोई सुधार नहीं हुआ था। गांव के लगभग ९५ प्रतिशत लोग अब भी निरक्षर थे तथा सरकारी दस्तावेजों में हस्ताक्षर के बजाय उनके अंगूठों के निशान ही चलते थे। १०-१५ गांव के समूह में बिमारियों के इलाज व् किसी भी आक्समिक चिकित्सा के लिए पड़ोस के एक नजदीकी व् बड़े गांव कुटेसरा में केवल एक ही खानदानी हकीम साहब उपलब्ध थे। ये खानदान कई पीढ़ियों से हकीमयत कर रहा था। हकीम साहब का पूरा दवाखाना बटुए में उनकी जेब में रहता था। किसी भी बिमारी का निदान हकीम साहब नब्ज पढ़कर तथा पेशाब का रंग देखकर किया करते थे। ज्यादातर मामलों में कुछ ईश्वर की कृपा, मरीज की किस्मत और हकीम साहब की हकीमगिरी  की वजह से मरीज को फायदा हो ही जाता था। गांव वालों का हकीम साहब पर अटूट विश्वास था। या यूँ कहें की इलाज का कोई दूसरा विकल्प ही मौजूद नहीं था। वैसे भी उस समय गांव की फिजा में न तो वायु प्रदुषण था और न ही खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट थी। लोगों की मानसिकता भी सरल तथा दुविधा मुक्त थी। ऐसे में बीमार पड़ने की सम्भावना वैसे ही कम हो जाती है। लोग यदि बीमार पड़ते भी थे तो या तो संक्रामक बीमारियों के कारण अथवा शादी ब्याह में अधिक व् बेमेल खाना खाने के कारण। संतुलित भोजन की पूर्ण जानकारी न होना भी बीमार होने का प्रमुख कारण था। वास्तव में तब गांव का जीवन बहुत ही नैसर्गिक था। कभी कभी आपसी स्वार्थों का टकराव या मूंछों की लड़ाई ही उनके लिए परेशानी का सबब बनती थी। 

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